Wednesday

श्रीमद् भगवत गीता

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्


दूसरा अध्याय

संजय बोलेतं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥२- १॥
तब चिंता और विशाद में डूबे अर्जुन को, जिसकी आँखों में आँसू भर आऐ थे,मधुसूदन ने यह वाक्य कहे |


श्रीभगवान बोलेकुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२- २॥
हे अर्जुन, यह तुम किन विचारों में डूब रहे हो जो इस समय गलत हैं और स्वर्ग और कीर्ती के बाधक हैं ॥

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥२- ३॥
तुम्हारे लिये इस दुर्बलता का साथ लेना ठीक नहीं । इस नीच भाव, हृदय की दुर्बलता, का त्याग करके उठो हे परन्तप ॥


अर्जुन बोलेकथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥२- ४॥
हे अरिसूदन, मैं किस प्रकार भीष्म, संख्य और द्रोण से युध करुँगा । वे तो मेरी पूजा के हकदार हैं ॥


गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥२- ५॥
इन महानुभाव गुरुयों की हत्या से तो भीख माँग कर जीना ही बेहतर होगा । इन को मारकर जो भोग हमें प्राप्त होंगे वे सब तो खून से रँगे होंगे ॥


चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥२- ६॥
हम तो यह भी नहीं जानते की हम जीतेंगे याँ नहीं, और यह भी नहीं की दोनो में से बेहतर क्या है, उनका जीतना या हमारा, क्योंकि जिन्हें मार कर हम जीना भी नहीं चाहेंगे वही धार्तराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़ें हैं ॥कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥२- ७॥
इस दुख चिंता ने मेरे स्वभाव को छीन लिया है और मेरा मन शंका से घिरकर सही धर्म को नहीं हेख पा रहा है । मैं आप से पूछता हूँ, जो मेरे लिये निष्चित प्रकार से अच्छा हो वही मुझे बताइये ॥ मैं आप का शिष्य हूँ और आप की ही शरण लेता हूँ ॥न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥२- ८॥
मुझे नहीं दिखता कैसे इस दुखः का, जो मेरी इन्द्रीयों को सुखा रहा है, अन्त हो सकता है, भले ही मुझे इस भूमी पर अति समृद्ध और शत्रुहीन राज्य यां देवतायों का भी राज्यपद क्यों न मिल जाऐ ॥संजय बोलेएवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥२- ९॥
हृषिकेश, श्री गोविन्द जी को परन्तप अर्जुन, गुडाकेश यह कह कर चुप हो गये कि मैं युध नहीं करुँगा ॥तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥२- १०॥हे भारत, दो सेनाओं के बीच में शोक और दुख से घिरे अर्जुन को प्रसन्नता से हृषीकेश ने यह बोला ॥


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

तीसरा अध्याय -1
अर्जुन बोलेज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥३- १॥
हे केशव, अगर आप बुद्धि को कर्म से अधिक मानते हैं तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों न्योजित कर रहे हैं ॥व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में ।तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥३- २॥
मिले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुद्धि शंकित हो रही है । इसलिये मुझे वह एक रस्ता बताईये जो निष्चित प्रकार से मेरे लिये अच्छा हो ॥श्रीभगवान बोलेलोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३- ३॥
हे नि़ष्पाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो प्रकार की निष्ठाऐं पहले बताई गयीं थीं । ज्ञान योग सन्यास से जुड़े लोगों के लिये और कर्म योग उनके लिये जो कर्म योग से जुड़े हैं न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥३- ४॥
कर्म का आरम्भ न करने से मनुष्य नैष्कर्म सिद्धी नहीं प्राप्त कर सकता अतः कर्म योग के अभ्यास में कर्मों का करना जरूरी है । और न ही केवल त्याग कर देने से सिद्धी प्राप्त होती है ॥न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥३- ५॥
कोई भी एक क्षण के लिये भी कर्म किये बिना नहीं बैठ सकता । सब प्रकृति से पैदा हुऐ गुणों से विवश होकर कर्म करते हैं ॥कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥३- ६॥
कर्म कि इन्द्रीयों को तो रोककर, जो मन ही मन विषयों के बारे में सोचता है उसे मिथ्या अतः ढोंग आचारी कहा जाता है ॥यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥३- ७॥
हे अर्जुन, जो अपनी इन्द्रीयों और मन को नियमित कर कर्म का आरम्भ करते हैं, कर्म योग का आसरा लेते हुऐ वह कहीं बेहतर हैं ॥नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥३- ८॥
जो तुम्हारा काम है उसे तुम करो क्योंकि कर्म से ही अकर्म पैदा होता है, मतलब कर्म योग द्वारा कर्म करने से ही कर्मों से छुटकारा मिलता है । कर्म किये बिना तो यह शरीर की यात्रा भी संभव नहीं हो सकती । शरीर है तो कर्म तो करना ही पड़ेगा ॥यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥३- ९॥
केवल यज्ञा समझ कर तुम कर्म करो हे कौन्तेय वरना इस लोक में कर्म बन्धन का कारण बनता है । उसी के लिये कर्म करते हुऐ तुम संग से मुक्त रह कर समता से रहो सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥३- १०॥
यज्ञ के साथ ही बहुत पहले प्रजापति ने प्रजा की सृष्टि की और कहा की इसी प्रकार कर्म यज्ञ करने से तुम बढोगे और इसी से तुम्हारे मन की कामनाऐं पूरी होंगी ॥देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥३- ११॥
तुम देवताओ को प्रसन्न करो और देवता तुम्हें प्रसन्न करेंगे, इस प्रकार परस्पर एक दूसरे का खयाल रखते तुम परम श्रेय को प्राप्त करोगे ॥इष्टान्भोगान्हि वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥३- १२॥
यज्ञों से संतुष्ट हुऐ देवता तुम्हें मन पसंद भोग प्रदान करेंगे । जो उनके दिये हुऐ भोगों को उन्हें दिये बिना खुद ही भोगता है वह चोर है ॥यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात् ॥३- १३॥
जो यज्ञ से निकले फल का आनंद लेते हैं वह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं लेकिन जो पापी खुद पचाने को लिये ही पकाते हैं वे पाप के भागीदार बनते हैं ॥अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥३- १४॥
जीव अनाज से होते हैं । अनाज बिरिश से होता है । और बिरिश यज्ञ से होती है । यज्ञ कर्म से होता है ॥ (यहाँ प्राकृति के चलने को यज्ञ कहा गया है)कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३- १५॥
कर्म ब्रह्म से सम्भव होता है और ब्रह्म अक्षर से होता है । इसलिये हर ओर स्थित ब्रह्म सदा ही यज्ञ में स्थापित है ।
॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


चौथा अध्याय

श्रीभगवान बोलेइमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥४-१॥इस अव्यय योगा को मैने विवस्वान को बताया । विवस्वान ने इसे मनु को कहा । और मनु ने इसे इक्ष्वाक को बताया ॥एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥४-२॥हे परन्तप, इस तरह यह योगा परम्परा से राजर्षीयों को प्राप्त होती रही । लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, बहुत समय बाद, इसका ज्ञान नष्ट हो गया ॥स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥४-३॥वही पुरातन योगा को मैने आज फिर तुम्हे बताया है । तुम मेरे भक्त हो, मेरे मित्र हो और यह योगा एक उत्तम रहस्य है ॥अर्जुन उवाचअपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥४-४॥आपका जन्म तो अभी हुआ है, विवस्वान तो बहुत पहले हुऐ हैं । कैसे मैं यह समझूँ कि आप ने इसे शुरू मे बताया था ॥श्रीभगवानुवाचबहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥४-५॥अर्जुन, मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं और तुम्हारे भी । उन सब को मैं तो जानता हूँ पर तुम नहीं जानते, हे परन्तप ॥अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥४-६॥यद्यपि मैं अजन्मा और अव्यय, सभी जीवों का महेश्वर हूँ, तद्यपि मैं अपनी प्रकृति को अपने वश में कर अपनी माया से ही संभव होता हूँ ॥यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥हे भारत, जब जब धर्म का लोप होता है, और अधर्म बढता है, तब तब मैं सवयंम सवयं की रचना करता हूँ ॥परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥साधू पुरुषों के कल्याण के लिये, और दुष्कर्मियों के विनाश के लिये, तथा धर्म कि स्थापना के लिये मैं युगों योगों मे जन्म लेता हूँ ॥जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥४-९॥मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, इसे जो सारवत जानता है, देह को त्यागने के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं होता, बल्कि वो मेरे पास आता है, हे अर्जुन ॥वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥४-१०॥लगाव, भय और क्रोध से मुक्त, मुझ में मन लगाये हुऐ, मेरा ही आश्रय लिये लोग, ज्ञान और तप से पवित्र हो, मेरे पास पहुँचते हैं ॥
॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

चौथा अध्याय

श्रीभगवान बोलेइमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥४-१॥इस अव्यय योगा को मैने विवस्वान को बताया । विवस्वान ने इसे मनु को कहा । और मनु ने इसे इक्ष्वाक को बताया ॥एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥४-२॥हे परन्तप, इस तरह यह योगा परम्परा से राजर्षीयों को प्राप्त होती रही । लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, बहुत समय बाद, इसका ज्ञान नष्ट हो गया ॥स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥४-३॥वही पुरातन योगा को मैने आज फिर तुम्हे बताया है । तुम मेरे भक्त हो, मेरे मित्र हो और यह योगा एक उत्तम रहस्य है ॥अर्जुन उवाचअपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥४-४॥आपका जन्म तो अभी हुआ है, विवस्वान तो बहुत पहले हुऐ हैं । कैसे मैं यह समझूँ कि आप ने इसे शुरू मे बताया था ॥श्रीभगवानुवाचबहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥४-५॥अर्जुन, मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं और तुम्हारे भी । उन सब को मैं तो जानता हूँ पर तुम नहीं जानते, हे परन्तप ॥अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥४-६॥यद्यपि मैं अजन्मा और अव्यय, सभी जीवों का महेश्वर हूँ, तद्यपि मैं अपनी प्रकृति को अपने वश में कर अपनी माया से ही संभव होता हूँ ॥यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥हे भारत, जब जब धर्म का लोप होता है, और अधर्म बढता है, तब तब मैं सवयंम सवयं की रचना करता हूँ ॥परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥साधू पुरुषों के कल्याण के लिये, और दुष्कर्मियों के विनाश के लिये, तथा धर्म कि स्थापना के लिये मैं युगों योगों मे जन्म लेता हूँ ॥जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥४-९॥मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, इसे जो सारवत जानता है, देह को त्यागने के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं होता, बल्कि वो मेरे पास आता है, हे अर्जुन ॥वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥४-१०॥लगाव, भय और क्रोध से मुक्त, मुझ में मन लगाये हुऐ, मेरा ही आश्रय लिये लोग, ज्ञान और तप से पवित्र हो, मेरे पास पहुँचते हैं ॥
॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
छटा अध्याय

श्रीभगवान बोलेअनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥६- १॥
कर्म के फल का आश्रय न लेकर जो कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी । वह नहीं जो अग्निहीन है, न वह जो अक्रिय है ।यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥६- २॥
जिसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे पाण्डव । क्योंकि सन्यास अर्थात त्याग के संकल्प के बिना कोई योगी नहीं बनता ।आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥६- ३॥
एक मुनि के लिये योग में स्थित होने के लिये कर्म साधन कहा जाता है । योग मे स्थित हो जाने पर शान्ति उस के लिये साधन कही जाती है ।यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥६- ४॥
जब वह न इन्द्रियों के विषयों की ओर और न कर्मों की ओर आकर्षित होता है, सभी संकल्पों का त्यागी, तब उसे योग में स्थित कहा जाता है ।उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥६- ५॥
सवयंम से अपना उद्धार करो, सवयंम ही अपना पतन नहीं । मनुष्य सवयंम ही अपना मित्र होता है और सवयंम ही अपना शत्रू ।बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥६- ६॥
जिसने अपने आप पर जीत पा ली है उसके लिये उसका आत्म उसका मित्र है । लेकिन सवयंम पर जीत नही प्राप्त की है उसके लिये उसका आत्म ही शत्रु की तरह वर्तता है ।जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥६- ७॥
अपने आत्मन पर जीत प्राप्त किया, सरदी गरमी, सुख दुख तथा मान अपमान में एक सा रहने वाला, प्रसन्न चित्त मनुष्य परमात्मा मे बसता है ।ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥६- ८॥
ज्ञान और अनुभव से तृप्त हुई आत्मा, अ-हिल, अपनी इन्द्रीयों पर जीत प्राप्त कीये, इस प्रकार युक्त व्यक्ति को ही योगी कहा जाता है, जो लोहे, पत्थर और सोने को एक सा देखता है ।सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥६- ९॥
जो अपने सुहृद को, मित्र को, वैरी को, कोई मतलब न रखने वाले को, बिचोले को, घृणा करने वाले को, सम्बन्धी को, यहाँ तक की एक साधू पुरूष को और पापी पुरूष को एक ही बुद्धि से देखता है वह उत्तम है ।योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥६- १०॥
योगी को एकान्त स्थान पर स्थित होकर सदा अपनी आत्मा को नियमित करना चाहिये । एकान्त मे इच्छाओं और घर, धन आदि मान्सिक परिग्रहों से रहित हो अपने चित और आत्मा को नियमित करता हुआ ।शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥६- ११॥
उसे ऍसे आसन पर बैठना चाहिये जो साफ और पवित्र स्थान पर स्थित हो, स्थिर हो, और जो न ज़्यादा ऊँचा हो और न ज़्यादा नीचा हो, और कपड़े, खाल या कुश नामक घास से बना हो ।तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥६- १२॥
वहाँ अपने मन को एकाग्र कर, चित्त और इन्द्रीयों को अक्रिय कर, उसे आत्म शुद्धि के लिये ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये ।समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥६- १३॥
अपनी काया, सिर और गर्दन को एक सा सीधा धारण कर, अचल रखते हुऐ, स्थिर रह कर, अपनी नाक के आगे वाले भाग की ओर एकाग्रता से देखते हुये, और किसी दिशा में नहीं देखना चाहिये ।प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥६- १४॥
प्रसन्न आत्मा, भय मुक्त, ब्रह्मचार्य के व्रत में स्थित, मन को संयमित कर, मुझ मे चित्त लगाये हुऐ, इस प्रकार युक्त हो मेरी ही परम चाह रखते हुऐ ।
॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
छटा अध्याय

श्रीभगवान बोलेअनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥६- १॥
कर्म के फल का आश्रय न लेकर जो कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी । वह नहीं जो अग्निहीन है, न वह जो अक्रिय है ।यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥६- २॥
जिसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे पाण्डव । क्योंकि सन्यास अर्थात त्याग के संकल्प के बिना कोई योगी नहीं बनता ।आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥६- ३॥
एक मुनि के लिये योग में स्थित होने के लिये कर्म साधन कहा जाता है । योग मे स्थित हो जाने पर शान्ति उस के लिये साधन कही जाती है ।यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥६- ४॥
जब वह न इन्द्रियों के विषयों की ओर और न कर्मों की ओर आकर्षित होता है, सभी संकल्पों का त्यागी, तब उसे योग में स्थित कहा जाता है ।उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥६- ५॥
सवयंम से अपना उद्धार करो, सवयंम ही अपना पतन नहीं । मनुष्य सवयंम ही अपना मित्र होता है और सवयंम ही अपना शत्रू ।बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥६- ६॥
जिसने अपने आप पर जीत पा ली है उसके लिये उसका आत्म उसका मित्र है । लेकिन सवयंम पर जीत नही प्राप्त की है उसके लिये उसका आत्म ही शत्रु की तरह वर्तता है ।जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥६- ७॥
अपने आत्मन पर जीत प्राप्त किया, सरदी गरमी, सुख दुख तथा मान अपमान में एक सा रहने वाला, प्रसन्न चित्त मनुष्य परमात्मा मे बसता है ।ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥६- ८॥
ज्ञान और अनुभव से तृप्त हुई आत्मा, अ-हिल, अपनी इन्द्रीयों पर जीत प्राप्त कीये, इस प्रकार युक्त व्यक्ति को ही योगी कहा जाता है, जो लोहे, पत्थर और सोने को एक सा देखता है ।सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥६- ९॥
जो अपने सुहृद को, मित्र को, वैरी को, कोई मतलब न रखने वाले को, बिचोले को, घृणा करने वाले को, सम्बन्धी को, यहाँ तक की एक साधू पुरूष को और पापी पुरूष को एक ही बुद्धि से देखता है वह उत्तम है ।योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥६- १०॥
योगी को एकान्त स्थान पर स्थित होकर सदा अपनी आत्मा को नियमित करना चाहिये । एकान्त मे इच्छाओं और घर, धन आदि मान्सिक परिग्रहों से रहित हो अपने चित और आत्मा को नियमित करता हुआ ।शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥६- ११॥
उसे ऍसे आसन पर बैठना चाहिये जो साफ और पवित्र स्थान पर स्थित हो, स्थिर हो, और जो न ज़्यादा ऊँचा हो और न ज़्यादा नीचा हो, और कपड़े, खाल या कुश नामक घास से बना हो ।तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥६- १२॥
वहाँ अपने मन को एकाग्र कर, चित्त और इन्द्रीयों को अक्रिय कर, उसे आत्म शुद्धि के लिये ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये ।समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥६- १३॥
अपनी काया, सिर और गर्दन को एक सा सीधा धारण कर, अचल रखते हुऐ, स्थिर रह कर, अपनी नाक के आगे वाले भाग की ओर एकाग्रता से देखते हुये, और किसी दिशा में नहीं देखना चाहिये ।प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥६- १४॥
प्रसन्न आत्मा, भय मुक्त, ब्रह्मचार्य के व्रत में स्थित, मन को संयमित कर, मुझ मे चित्त लगाये हुऐ, इस प्रकार युक्त हो मेरी ही परम चाह रखते हुऐ ।
॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
आठवाँ अध्याय

अर्जुन बोलेकिं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥८- १॥हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, और कर्म क्या होता है । अधिभूत किसे कहते हैं और अधिदैव किसे कहा जाता है ।अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥८- २॥हे मधुसूदन, इस देह में जो अधियज्ञ है वह कौन है । और सदा नियमित चित्त वाले कैसे मृत्युकाल के समय उसे जान जाते हैं ।श्रीभगवानुवाचअक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥८- ३॥जिसका क्षर नहीं होता वह ब्रह्म है । जीवों के परम स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है । जीवों की जिससे उत्पत्ति होती है उसे कर्म कहा जाता है ।अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥८- ४॥इस देह के क्षर भाव को अधिभूत कहा जाता है, और पुरूष अर्थात आत्मा को अधिदैव कहा जाता है । इस देह में मैं अधियज्ञ हूँ - देह धारण करने वालों में सबसे श्रेष्ठ ।अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥८- ५॥अन्तकाल में मुझी को याद करते हुऐ जो देह से मुक्ति पाता है, वह मेरे ही भाव को प्राप्त होता है, इस में कोई संशय नहीं ।यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥८- ६॥प्राणी जो भी स्मरन करते हुऐ अपनी देह त्यागता है, वह उसी को प्राप्त करता है हे कौन्तेय, सदा उन्हीं भावों में रहने के कारण ।तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥८- ७॥इसलिये, हर समय मुझे ही याद करते हुऐ तुम युद्ध करो । अपने मन और बुद्धि को मुझे ही अर्पित करने से, तुम मुझ में ही रहोगे, इस में कोई संशय नहीं ।अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥८- ८॥कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥८- ९॥हे पार्थ, अभ्यास द्वारा चित्त को योग युक्त कर और अन्य किसी भी विषय का चिन्तन न करते हुऐ, उन पुरातन कवि, सब के अनुशासक, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, सबके धाता, अचिन्त्य रूप, सूर्य के प्रकार प्रकाशमयी, अंधकार से परे उन ईश्वर का ही चिन्तन करते हुऐ, उस दिव्य परम-पुरुष को ही प्राप्त करोगे ।प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥८- १०॥इस देह को त्यागते समय, मन को योग बल से अचल कर और और भक्ति भाव से युक्त हो, भ्रुवों के मध्य में अपने प्राणों को टिका कर जो प्राण त्यागता है वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है ।यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥८- ११॥जिसे वेद को जानने वाले अक्षर कहते हैं, और जिसमें साधक राग मुक्त हो जाने पर प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ती की इच्छा से ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्या का पालन करते हैं, तुम्हें मैं उस पद के बारे में बताता हूँ ।सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥८- १२॥ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥८- १३॥अपने सभी द्वारों (अर्थात इन्द्रियों) को संयमशील कर, मन और हृदय को निरोद्ध कर (विषयों से निकाल कर), प्राणों को अपने मश्तिष्क में स्थित कर, इस प्रकार योग को धारण करते हुऐ । ॐ से अक्षर ब्रह्म को संबोधित करते हुऐ, और मेरा अनुस्मरन करते हुऐ, जो अपनी देह को त्यजता है, वह परम गति को प्राप्त करता है ।अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥८- १४॥अनन्य चित्त से जो मुझे सदा याद करता है, उस नित्य युक्त योगी के लिये मुझे प्राप्त करना आसान है हे पार्थ ।मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥८- १५॥मुझे प्राप्त कर लेने पर महात्माओं को फिर से, दुख का घर और मृत्युरूप, अगला जन्म नहीं लेना पड़ता, क्योंकि वे परम सिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं ।आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥८- १६॥ब्रह्म से नीचे जितने भी लोक हैं उनमें से किसी को भी प्राप्त करने पर जीव को वापिस लौटना पड़ता है (मृत्यु होती है), लेकिन मुझे प्राप्त कर लेने पर, हे कौन्तेय, फिर दोबारा जन्म नहीं होता ।सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥८- १७॥जो जानते हैं की सहस्र (हज़ार) युग बीत जाने पर ब्रह्म का दिन होता है और सहस्र युगों के अन्त पर ही रात्री होती है, वे लोग दिन और रात को जानते हैं ।अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥८- १८॥दिन के आगम पर अव्यक्त से सभी उत्तपन्न होकर व्यक्त (दिखते हैं) होते हैं, और रात्रि के आने पर प्रलय को प्राप्त हो, जिसे अव्यक्त कहा जाता है, उसी में समा जाते हैं ।भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥८- १९॥हे पार्थ, इस प्रकार यह समस्त जीव दिन आने पर बार बार उत्पन्न होते हैं, और रात होने पर बार बार वशहीन ही प्रलय को प्राप्त होते हैं ।परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥८- २०॥इन व्यक्त और अव्यक्त जीवों से परे एक और अव्यक्त सनातन पुरुष है, जो सभी जीवों का अन्त होने पर भी नष्ट नहीं होता ।अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥८- २१॥जिसे अव्यक्त और अक्षर कहा जाता है, और जिसे परम गति बताया जाता है, जिसे प्राप्त करने पर कोई फिर से नहीं लौटता वही मेरा परम स्थान है ।पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥८- २२॥हे पार्थ, उस परम पुरुष को, जिसमें यह सभी जीव स्थित हैं और जीसमें यह सब कुछ ही बसा हुआ है, तुम अनन्य भक्ति से पा सकते हो ।यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥८- २३॥हे भरतर्षभ, अब मैं तुम्हें वह समय बताता हूँ जिसमें शरीर त्यागते हुऐ योगी लौट कर नहीं आते और जिसमें वे लौट कर आते हैं ।॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
नौंवा अध्याय

श्रीभगवानुवाचइदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥९- १॥मैं तुम्हे इस परम रहस्य के बारे में बताता हूँ क्योंकि तुममें इसके प्रति कोई वैर वहीं है । इसे ज्ञान और अनुभव सहित जान लेने पर तुम अशुभ से मुक्ति पा लोगे ।राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥९- २॥यह विद्या सबसे श्रेष्ठ है, सबसे श्रेष्ठ रहस्य है, उत्तम से भी उत्तम और पवित्र है, सामने ही दिखने वाली है (टेढी नहीं है), न्याय और अच्छाई से भरी है, अव्यय है और आसानी से इसका पालन किया जा सकता है ।अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥९- ३॥हे परन्तप, इस धर्म में जिन पुरुषों की श्रद्धा नहीं होती, वे मुझे प्राप्त न कर, बार बार इस मृत्यु संसार में जन्म लेते हैं ।मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥९- ४॥मैं इस संपूर्ण जगत में अव्यक्त (जो दिखाई न दे) मूर्ति रुप से विराजित हूँ । सभी जीव मुझ में ही स्थित हैं, मैं उन में नहीं ।न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥९- ५॥लेकिन फिर भी ये जीव मुझ में स्थित नहीं हैं । देखो मेरे योग ऍश्वर्य को, इन जीवों में स्थित न होते हुये भी मैं इन जीवों का पालन हार, और उत्पत्ति कर्ता हूँ ।यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९- ६॥जैसे सदा हर ओर फैले हुये आकाश में वायु चलती रहती है, उसी प्रकार सभी जीव मुझ में स्थित हैं ।सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥९- ७॥हे कौन्तेय, सभी जीव कल्प का अन्त हो जाने पर (1000 युगों के अन्त पर) मेरी ही प्रकृति में समा जाते हैं और फिर कल्प के आरम्भ पर मैं उनकी दोबारा रचना करता हूँ ।प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥९- ८॥इस प्रकार प्रकृति को अपने वश में कर, पुनः पुनः इस संपूर्ण जीव समूह की मैं रचना करता हूँ जो इस प्रकृति के वश में होने के कारण वशहीन हैं ।न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ।उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९- ९॥यह कर्म मुझे बांधते नहीं हैं, हे धनंजय, क्योंकि मैं इन कर्मैं को करते हुये भी इनसे उदासीन (जिसे कोई खास मतलब न हो) और संग रहित रहता हूँ ।मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥९- १०॥मेरी अध्यक्षता के नीचे यह प्रकृति इन चर और अचर (चलने वाले और न चलने वाले) जीवों को जन्म देती है । इसी से, हे कौन्तेय, इस जगत का परिवर्तन चक्र चलता है ।अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥९- ११॥इस मानुषी तन का आश्रय लेने पर (मानव रुप अवतार लेने पर), जो मूर्ख हैं वे मुझे नहीं पहचानते । मेरे परम भाव को न जानते कि मैं इन सभी भूतों का (संसार और प्राणीयों का) महान् ईश्वर हूँ ।मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥९- १२॥व्यर्थ आशाओं में बँधे, व्यर्थ कर्मों में लगे, व्यर्थ ज्ञानों से जिनका चित्त हरा जा चुका है, वे विमोहित करने वाली राक्षसी और आसुरी प्रकृति का सहारा लेते हैं ।महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥९- १३॥लेकिन महात्मा लोग, हे पार्थ, दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर मुझे ही अव्यय (विकार हीन) और इस संसार का आदि जान कर, अनन्य मन से मुझे भजते हैं ।सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥९- १४॥ऍसे भक्त सदा मेरी प्रशंसा (कीर्ति) करते हुये, मेरे सामने नतमस्तक हो और सदा भक्ति से युक्त हो दृढ व्रत से मेरी उपासने करते हैं ।ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥९- १५॥और दूसरे कुछ लोग ज्ञान यज्ञ द्वारा मुझे उपासते हैं । अलग अलग रूपों में एक ही देखते हुये, और इन बहुत से रुपों को ईश्वर का विश्वरूप ही देखते हुये ।॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
दसवाँ अध्याय

श्रीभगवानुवाचभूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१०- १॥फिर से, हे महाबाहो, तुम मेरे परम वचनों को सुनो । क्योंकि तुम मुझे प्रिय हो इसलिय मैं तुम्हारे हित के लिये तुम्हें बताता हूँ ।न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥१०- २॥न मेरे आदि (आरम्भ) को देवता लोग जानते हैं और न ही महान् ऋषि जन क्योंकि मैं ही सभी देवताओं का और महर्षियों का आदि हूँ ।यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१०- ३॥जो मुझे अजम (जन्म हीन) और अन-आदि (जिसका कोई आरम्भ न हो) और इस संसार का महान ईश्वर (स्वामि) जानता है, वह मूर्खता रहित मनुष्य इस मृत्यु संसार में सभी पापों से मुक्त हो जाता है ।बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥१०- ४॥अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥१०- ५॥बुद्धि, ज्ञान, मोहित होने का अभाव, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों पर संयम, मन की सैम्यता (संयम), सुख, दुख, होना और न होना, भय और अभय, प्राणियों की हिंसा न करना (अहिंसा), एक सा रहना एक सा देखना (समता), संतोष, तप, दान, यश, अपयश - प्राणियों के ये सभी अलग अलग भाव मुझ से ही होते हैं ।महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥१०- ६॥पुर्वकाल में उत्पन्न हुये सप्त (सात) महर्षि, चार ब्रह्म कुमार, और मनु - ये सब मेरे द्वारा ही मन से (योग द्वारा) उत्पन्न हुये हैं और उनसे ही इस लोक में यह प्रजा हुई है ।एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥१०- ७॥मेरी इस विभूति (संसार के जन्म कर्ता) और योग ऍश्वर्य को सार तक जानता है, वह अचल (भक्ति) योग में स्थिर हो जाता है, इसमें कोई शक नहीं ।अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥१०- ८॥मैं ही सब कुछ का आरम्भ हूँ, मुझ से ही सबकुछ चलता है । यह मान कर बुद्धिमान लोग पूर्ण भाव से मुझे भजते हैं ।मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥१०- ९॥मुझ में ही अपने चित्त को बसाऐ, मुझ में ही अपने प्राणों को संजोये, परस्पर एक दूसरे को मेरा बोध कराते हुये और मेरी बातें करते हुये मेरे भक्त सदा संतुष्ट रहते हैं और मुझ में ही रमते हैं ।तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥१०- १०॥ऍसे भक्त जो सदा भक्ति भाव से भरे मुझे प्रीति पूर्ण ढंग से भजते हैं, उनहें मैं वह बुद्धि योग (सार युक्त बुद्धि) प्रदान करता हूँ जिसके द्वारा वे मुझे प्राप्त करते हैं ।॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
ग्यारवाँ अध्याय

अर्जुन उवाचमदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् ।यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥११- १॥मुझ पर अनुग्रह कर आपने यह परम गुह्य अध्यात्म ज्ञान जो मुझे बताया, आपके इन वचनों से मेरा मोह (अन्धकार) चला गया है ।भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥११- २॥हे कमलपत्र नयन, मैंने आपसे सभी प्राणियों की उत्पत्ति और अन्त को विस्तार से सुना है और हे अव्यय, आपके महात्मय का वर्णन भी ।एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥११- ३॥जैसा आप को बताया जाता है, है परमेश्वर, आप वैसे ही हैं । हे पुरुषोत्तम, मैं आप के ईश्वर रुप को देखना चाहता हूँ ।मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥११- ४॥हे प्रभो, यदि आप मानते हैं कि आपके उस रुप को मेरे द्वारा देख पाना संभव है, तो हे योगेश्वर, मुझे आप अपने अव्यय आत्म स्वरुप के दर्शन करवा दीजिये ।श्रीभगवानुवाचपश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥११- ५॥हे पार्थ, तुम मेरे रुपों का दर्शन करो । सैंकड़ों, हज़ारों, भिन्न भिन्न प्रकार के, दिव्य, भिन्न भिन्न वर्णों और आकृतियों वाले ।पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥११- ६॥हे भारत, तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनों, और मरुदों को देखो । और बहुत से पहले कभी न देखे गये आश्चर्यों को भी देखो ।इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि ॥११- ७॥हे गुडाकेश, तुम मेरी देह में एक जगह स्थित इस संपूर्ण चर-अचर जगत को देखो । और भी जो कुछ तुम्हे देखने की इच्छा हो, वह तुम मेरी इस देह सकते हो ।न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥११- ८॥लेकिन तुम मुझे अपने इस आँखों से नहीं देख सकते । इसलिये, मैं तुम्हे दिव्य चक्षु (आँखें) प्रदान करता हूँ जिससे तुम मेरे योग ऍश्वर्य का दर्शन करो ।संजय उवाचएवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥११- ९॥यह बोलने के बाद, हे राजन, महायोगेश्वर हरिः ने पार्थ को अपने परम ऍश्वर्यमयी रुप का दर्शन कराया ।अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥११- १०॥अर्जुन ने देखा कि भगवान के अनेक मुख हैं, अनेक नेत्र हैं, अनेक अद्भुत दर्शन (रुप) हैं । उन्होंने अनेक दिव्य अभुषण पहने हुये हैं, और अनेकों दिव्य आयुध (शस्त्र) धारण किये हुये हैं ।॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
बारहवाँ अध्याय
अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥१२- १॥दोनों में से कौन उत्तम हैं - जो भक्त सदा आपकी भक्ति युक्त रह कर आप की उपासना करते हैं, और जो अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं ।श्रीभगवानुवाचमय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥जो भक्त मुझ में मन को लगा कर निरन्तर श्रद्धा से मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में उत्तम हैं ।ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥१२- ३॥जो अक्षर, अनिर्देश्य (जिसके स्वरुप को बताया नहीं जा सकता), अव्यक्त, सर्वत्र गम्य (हर जगह उपस्थित), अचिन्तीय, सदा एक स्थान पर स्थित, अचल और ध्रुव (पक्का, न हिलने वाला) की उपासना करते हैं ।संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥१२- ४॥इन्द्रियों के समूह को संयमित कर, हर ओर हर जगह समता की बुद्धि से देखते हुये, सभी प्राणीयों के हितकर, वे भी मुझे ही प्राप्त करते हैं ।क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥१२- ५॥लेकिन उन के पथ में कठिनाई ज़्यादा है, जो अव्यक्त में चित्त लगाने में आसक्त हैं क्योंकि देह धारियों के लिये अव्यक्त को प्राप्त करना कठिन है ।ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥१२- ६॥लेकिन जो सभी कर्मों को मुझ पर त्याग कर मुझी पर आसार हुये (मेरी प्राप्ति का लक्ष्य किये) अनन्य भक्ति योग द्वारा मुझ पर ध्यान करते हैं और मेरी उपासना करते हैं ।तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥१२- ७॥ऍसे भक्तों को मैं बहुत जल्दि (बिना किसी देर किये) ही इस मृत्यु संसार रुपी सागर से उद्धार करने वाला बनता हूँ जिनका चित्त मुझ ही में लगा हुआ है (मुझ में ही समाया हुआ है) ।मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥१२- ८॥इसलिये, अपने मन को मुझ में ही स्थापित करो, मुझ में ही अपनी बुद्धि को लगाओ, इस प्रकार करते हुये तुम केवल मुझ में ही निवास करोगे (मुझ में ही रहोगे), इस में को संशय नहीं है ।अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ॥१२- ९॥और यदि तुम अपने चित्त को मुझ में स्थिरता से स्थापित (मुझ पर अटूट ध्यान) नहीं कर पा रहे हो, तो अभ्यास (भगवान में चित्त लगाने के अभ्यास) करो और मेरी ही इच्छा करो हे धनंजय ।अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥१२- १०॥और यदि तुम मुझ में चित्त लगाने का अभ्यास करने में भी असमर्थ हो, तो मेरे लिये ही कर्म करने की ठानो । इस प्रकार, मेरे ही लिये कर्म करते हुये तुम सिद्धि (योग सिद्धि) प्राप्त कर लोगे ।अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥१२- ११॥और यदि, तुम यह करने में भी सफल न हो पाओ, तो मेरे बताये योग का आश्रय लेकर अपने मन और आत्मा पर संयम कर तुम सभी कर्मों के फलों को छोड़ दो (त्याग कर दो) ।श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥१२- १२॥अभ्यास से बढकर ज्ञान (समझ आ जाना) है, ज्ञान (समझ) से बढकर ध्यान है । और ध्यान से भी उत्तम कर्ण के फल का त्याग है, क्योंकि ऍसा करते ही तुरन्त शान्ति प्राप्त होती है ।अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥१२- १३॥जो सभी जीवों के प्रति द्वेष-हीन है, मैत्री (मित्र भाव) है, करुणशाल है । जो 'मैं और मेरे' के विचारों से मुक्त है, अहंकार रहित है, सुख और दुखः को एक सा देखता है, जो क्षमी है ।संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१२- १४॥जो योगी सदा संतुष्ट है, जिसका अपने आत्म पर काबू है, जो दृढ निश्चय है । जो मन और बुद्धि से मुझे अर्पित है, ऍसा मनुष्य, मेरा भक्त, मुझे प्रिय है ।यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१२- १५॥जिससे लोग उद्विचित (व्याकुल, परेशान) नहीं होते (अर्थात जो किसी को परेशान नहीं करता, उद्विग्न नहीं देता), और जो स्वयं भी लोगों से उद्विजित नहीं होता, जो हर्ष, ईर्षा, भय, उद्वेग से मुक्त है, ऍसा मनुष्य मुझे प्रिय है ।अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१२- १६॥जो आकाङ्क्षा रहित है, शुद्ध है, दक्ष है, उदासीन (मतलब रहित) है, व्यथा रहित है, सभी आरम्भों का त्यागी है, ऍसा मेरी भक्त मुझे प्रिय है ।यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१२- १७॥जो न प्रसन्न होता है, न दुखी (द्वेष) होता है, न शोक करता है और न ही आकाङ्क्षा करता है । शुभ और अशुभ दोनों का जिसने त्याग कर दिया है, ऍसा भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है ।समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥१२- १८॥जो शत्रु और मित्र के प्रति समान है, तथा मान और अपमान में भी एक सा है, जिसके लिये सरदी गरमी एक हैं, और जो सुख और दुख में एक सा है, हर प्रकार से संग रहित है ।तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥१२- १९॥जो अपनी निन्दा और स्तुति को एक सा भाव देता है (एक सा मानता है), जो मौनी है, किसी भी तरह (थोड़े बहुत में) संतुष्ट है, घर बार से जुड़ा नहीं है । जो स्थिर मति है, ऍसा भक्तिमान नर मुझे प्रिय है ।ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥१२- २०॥और जो श्रद्धावान भक्त मुझ ही पर परायण (मुझे ही लक्ष्य मानते) हुये, इस बताये गये धर्म अमृत की उपासना करते हैं (मानते हैं और पालन करते हैं), ऍसे भक्त मुझे अत्यन्त (अतीव) प्रिय हैं ।॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
तेरहँवां अध्याय
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥१३- १॥इस शरीर को, हे कौन्तेय, क्षेत्र कहा जाता है । और ज्ञानी लोग इस क्षेत्र को जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं ।क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥१३- २॥सभी क्षोत्रों में तुम मुझे ही क्षेत्रज्ञ जानो हे भारत (सभी शरीरों में मैं क्षेत्रज्ञ हूँ) । इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान (समझ) ही वास्तव में ज्ञान है, मेरे मत से ।तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥१३- ३॥वह क्षेत्र जो है और जैसा है, और उसके जो विकार (बदलाव) हैं, और जिस से वो उत्पन्न हुआ है, और वह क्षेत्रज्ञ जो है, और जो इसका प्रभाव है, वह तुम मुझ से संक्षेप में सुनो ।ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥१३- ४॥ऋषियों ने बहुत से गीतों में और विविध छन्दों में पृथक पृथक रुप से इन का वर्णन किया है । तथा सोच समझ कर संपूर्ण तरह निश्चित कर के ब्रह्म सूत्र के पदों में भी इसे बताया गया है ।महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥१३- ५॥महाभूत (मूल प्राकृति), अहंकार (मैं का अहसास), बुद्धि, अव्यक्त प्रकृति (गुण), दस इन्द्रियाँ (पाँच इन्द्रियां और मन और कर्म अंग), और पाँचों इन्द्रियों के विषय ।इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः ।एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥१३- ६॥इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघ (देह समूह), चेतना, धृति (स्थिरता) - यह संक्षेप में क्षेत्र और उसके विकार बताये गये हैं ।अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥१३- ७॥अभिमान न होना (स्वयं के मान की इच्छा न रखना), झुठी दिखावट न करना, अहिंसा (जीवों की हिंसा न करना), शान्ति, सरलता, आचार्य की उपासना करना, शुद्धता (शौच), स्थिरता और आत्म संयम ।इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥१३- ८॥इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य (इच्छा शून्यता), अहंकार का अभाव, जन्म मृत्यु जरा (बुढापे) और बिमारी (व्याधि) के रुप में जो दुख दोष है उसे ध्यान में रखना (अर्थात इन से मुक्त होने का प्रयत्न करना) ।असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥१३- ९॥आसक्ति से मुक्त रहना (संग रहित रहना), पुत्र, पत्नी और गृह आदि को स्वयं से जुड़ा न देखना (ऐकात्मता का भाव न होना), इष्ट (प्रिय) और अनिष्ट (अप्रिय) का प्राप्ति में चित्त का सदा एक सा रहना ।मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥१३- १०॥मुझ में अनन्य अव्यभिचारिणी (स्थिर) भक्ति होना, एकान्त स्थान पर रहने का स्वभाव होना, और लोगों से घिरे होने को पसंद न करना ।अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३- ११॥सदा अध्यात्म ज्ञान में लगे रहना, तत्त्व (सार) का ज्ञान होना, और अपनी भलाई (अर्थ अर्थात भगवात् प्राप्ति जिसे परमार्थ - परम अर्थ कहा जाता है) को देखना, इस सब को ज्ञान कहा गया है, और बाकी सब अज्ञान है ।ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥१३- १२॥जो ज्ञेय है (जिसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये), मैं उसका वर्णन करता हूँ, जिसे जान कर मनुष्य अमरता को प्राप्त होता है । वह (ज्ञेय) अनादि है (उसका कोई जन्म नहीं है), परम ब्रह्म है । न उसे सत कहा जाता है, न असत् कहा जाता है (वह इन संज्ञाओं से परे है) ।सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१३- १३॥हर ओर हर जगह उसके हाथ और पैर हैं, हर ओर हर जगह उसके आँखें और सिर तथा मुख हैं, हर जगह उसके कान हैं । वह इस संपूर्ण संसार को ढक कर (हर जगह व्याप्त हो) विराजमान है ।सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥१३- १४॥वह सभी इन्द्रियों से वर्जित होते हुये सभी इन्द्रियों और गुणों को आभास करता है । वह असक्त होते हुये भी सभी का भरण पोषण करता है । निर्गुण होते हुये भी सभी गुणों को भोक्ता है ।बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥१३- १५॥वह सभी चर और अचर प्राणियों के बाहर भी है और अन्दर भी । सूक्षम होने के कारण उसे देखा नहीं जा सकता । वह दुर भी स्थित है और पास भी ।अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥१३- १६॥सभी भूतों (प्राणियों) में एक ही होते हुये भी (अविभक्त होते हुये भी) विभक्त सा स्थित है । वहीं सभी प्राणियों का पालन पोषण करने वाला है, वहीं ज्ञेयं (जिसे जाना जाना चाहिये) है, ग्रसिष्णु है, प्रभविष्णु है ।ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥१३- १७॥सभी ज्योतियों की वही ज्योति है । उसे तमसः (अन्धकार) से परे (परम) कहा जाता है । वही ज्ञान है, वहीं ज्ञेय है, ज्ञान द्वारा उसे प्राप्त किया जाता है । वही सब के हृदयों में विराजमान है ।इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥१३- १८॥इस प्रकार तुम्हें संक्षेप में क्षेत्र (यह शरीर आदि), ज्ञान और ज्ञेय (भगवान) का वर्णन किया है । मेरा भक्त इन को समझ जाने पर मेरे स्वरुप को प्राप्त होता है ।प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥१३- १९॥तुम प्रकृति और पुरुष दोनो की ही अनादि (जन्म रहित) जानो । और विकारों और गुणों को तुम प्रकृति से उत्पन्न हुआ जानो ।कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥१३- २०॥कार्य के साधन और कर्ता होने की भावना में प्रकृति को कारण बताया जाता है । और सुख दुख के भोक्ता होने में पुरुष को उसका कारण कहा जाता है ।पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‌क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥१३- २१॥यह पुरुष (आत्मा) प्रकृति में स्थित हो कर प्रकृति से ही उत्पन्न हुये गुणों को भोक्ता है । इन गुणों से संग (जुडा होना) ही पुरुष का सद और असद योनियों में जन्म का कारण है ।उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥१३- २२॥यह पुरुष (जीव आत्मा) इस देह में स्थित होकर देह के साथ संग करता है इसलिये इसे उपद्रष्टा कहा जाता है, अनुमति देता है इसलिये इसे अनुमन्ता कहा जा सकता है, स्वयं को देह का पालन पोषण करने वाला समझने के कारण इसे भर्ता कहा जा सकता है, और देह को भोगने के कारण भोक्ता कहा जा सकता है, स्वयं को देह का स्वामि समझने के कारण महेष्वर कहा जा सकता है । लेकिन स्वरूप से यह परमात्मा तत्व ही है अर्थात इस का देह से कोई संबंध नहीं ।य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥१३- २३॥जो इस प्रकार पुरुष और प्रकृति तथा प्रकृति में स्थित गुणों के भेद को जानता है, वह मनुष्य सदा वर्तता हुआ भी दोबारा फिर मोहित नहीं होता ।ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥१३- २४॥कोई ध्यान द्वारा अपने ही आत्मन से अपनी आत्मा को देखते हैं, अन्य सांख्य ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करते हैं, तथा अन्य कई कर्म योग द्वारा ।अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥१३- २५॥लेकिन दूसरे कई इसे न जानते हुये भी जैसा सुना है उस पर विश्वास कर, बताये हुये की उपासना करते हैं । वे श्रुति परायण (सुने हुये पर विश्वास करते और उसका सहारा लेते) लोग भी इस मृत्यु संसार को पार कर जाते हैं ।यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥१३- २६॥हे भरतर्षभ, जो भी स्थावर यां चलने-फिरने वाले जीव उत्पन्न होते हैं, तुम उन्हें इस क्षेत्र (शरीर तथा उसके विकार आदि) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के संयोग से ही उत्पन्न हुआ समझो ।॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

खांसी की फांसी


बचें खांसी की फांसी से

खांसी यूं तो अपने आप में कोई बीमारी नहीं है, पर यह शरीर के अंदर पनप रही या पनपने की कोशिश कर रही दूसरी बीमारियों का लक्षण जरूर है। वैसे, आम इलाजों से खांसी ठीक भी हो जाती है, पर कई बार यह किसी गंभीर बीमारी की ओर भी इशारा कर सकती है, इसलिए इसे नजरअंदाज करना ठीक नहीं है। एक्सपर्ट्स से बात करके खांसी के बारे में पूरी जानकारी दे रहे हैं नरेश तनेजा : 

क्या होती है खांसी 
खांसी फेफड़ों, सांस की नलियों और गले में इन्फेक्शन या किसी कमी की वजह से होती है। नाक या मुंह की बीमारियों से खांसी नहीं होती। खांसी फेफड़ों या श्वसन तंत्र की किसी दूसरी बीमारी का लक्षण है, यानी खांसी इशारा है इस बात का कि शरीर के अंदर कोई बीमारी है। इसे शरीर का एक तरह का सुरक्षा मिकेनिज्म या उपाय भी कह सकते हैं। खांसी करके हमारा सिस्टम शरीर को बीमारियों के जीवाणुओं और कीटाणुओं से मुक्ति दिलाने की कोशिश करता है। इसमें हमें थोड़ी तकलीफ तो जरूर होती है क्योंकि मांसपेशियों व शरीर के बाकी अंगों पर जोर पड़ता है, लेकिन असल में उस समय शरीर अंदर ही अंदर अपनी रक्षा करने की कोशिश कर रहा होता है। हालांकि कई बार खांसी दूसरों तक बीमारी के कीटाणु या जीवाणु फैलाने का कारण भी बन जाती है। 

कितनी तरह की होती है 
सामान्य खांसी, ठस्के वाली खांसी (जिसका दौरा पड़ता है), कुकुर खांसी, काली खांसी और दमे से होने वाली खांसी। काली खांसी ऐसी खांसी को कहते हैं, जो लगातार आए, जिसमें सांस लेने का भी मौका न मिले और काफी देर बाद सांस आता हो। खांसी का ठस्का-सा लगता है। अमूमन यह बच्चों और किशोरों को होती है। 

क्यों होती है खांसी 
दमे से, गले में इन्फेक्शन से, टॉन्सिल्स से, फेरॅनजाइटिस से, ब्रोंकाइटिस से, फेफड़ों के इन्फेक्शन या दूसरी बीमारियों से, न्यूमोनिया से, दिल की बीमारियों की वजह से, बच्चों में पेट के कीड़ों के फेफड़ों में पहुंचने पर और एसिडिटी आदि से खांसी होती है। 

हो सकती है यह दिक्कत 
खांसी में बेचैनी, आंखों में खून या लाली आ जाना, सिरदर्द, कभी-कभी फेफड़ों में सूजन होना, मांसपेशियों पर जोर पड़ने से छाती में दर्द आदि हो सकता है। 

क्या संकेत करती है 
आपके श्वसन तंत्र या गले या फेफड़ों में कोई तकलीफ है, उसे नजरअंदाज न करें। लगातार तीन हफ्ते से ज्यादा खांसी रहे तो टीबी का संकेत हो सकती है, जिसकी पूरी जांच होनी चाहिए। 

ये बातें याद रखें 
कई बार एसिडिटी की वजह से भी खांसी होती है क्योंकि पेट में बना एसिड ऊपर चढ़कर सांस की नली में चला जाता है। ऐसे में एसिडिटी का इलाज जरूरी है, न कि खांसी का। 
कई बार दिल का बायां हिस्सा बढ़ जाए या फेफड़ों की नसों का प्रेशर ज्यादा हो तो भी खांसी होने लगती है। इसे दिल का अस्थमा भी कहते हैं। 
खांसी दमा का लक्षण भी हो सकती है। हालांकि दमा होने पर खांसी के वक्त सीटी बजना जरूरी नहीं है। 
सिर्फ खांसी होना स्वाइन फ्लू का लक्षण भी हो सकता है। 
तीन हफ्ते से ज्यादा खांसी होने पर टीबी की जांच करवा लेनी चाहिए। ऐसे में बलगम की तीन बार जांच करानी चाहिए। 
दूसरों से दूर होकर खांसें। मुंह पर नैपकिन रख लें और खांसने के बाद उसे डस्टबिन में फेंक दें। 
खाना खाते वक्त खांसी आए तो ध्यान से धीरे-धीरे खाएं, वरना खाने के टुकड़े सांस की नली में जा सकते हैं। 
कुछ खाना फंस जाने से खांसी आने लगे तो पीड़ित की पीठ सहला दें। गुनगुना पानी पिला दें। आराम न मिले तो डॉक्टर को दिखाएं। 
लेटते वक्त कोई भी खांसी बढ़ जाती है क्योंकि लेटने पर दिल पर प्रेशर बढ़ जाता है। 

क्या ये सेफ हैं 
खांसी की गोलियां मसलन विक्स, हॉल्स, स्ट्रेप्सिल्स आदि सेफ हैं। इनका कोई नुकसान नहीं है। इनसे आराम भी महसूस होता है। कफ सिरप भी लिए जा सकते हैं, पर कफ सिरप से शरीर और दिमाग में जरा सुस्ती आ जाती है। 

एलोपैथी 

एलोपैथी के अनुसार खांसी अलग-अलग तरह की होती है - नाक की खांसी, गले की खांसी, फेफड़े या दिल की खांसी। नाक की खांसी को नैसल एलर्जी या नैसल अस्थमा भी कहते हैं। इसमें खांसी के साथ छींकें व नाक से पानी बहता है। 

दवा : सिट्रिजिन-10 एमजी ( Cetrizine ) या एलेग्रा-120 एमजी ( Allegra ) की एक गोली रोज। 

गले की खांसी 
गले की खांसी सूखी व बलगम वाली, दोनों हो सकती है। एक में गले में सिर्फ खराश होगी और खांसी नहीं आएगी। दूसरे में खराश के साथ खांसी आएगी। 

खराश के साथ खांसी आए तो विटामिन-सी की गोली के साथ सिटजिन-10 एमजी या एलेग्रा-120 एमजी या तीन बार विकोरिल (Wikoryl) की गोली दी जा सकती है। अगर सिर्फ खराश हो तो पेंसिलिन ग्रुप की दवाएं दी जा सकती हैं। 

फेफड़े या दिल की खांसी 
खांसी में अगर बलगम के साथ सीटी भी बज रही है तो फेफड़ों की खांसी कही जाएगी। इसके लिए ब्रोंकोडिल या ब्रोंकोरेक्स सिरप के अलावा इनहेलर भी दिया जा सकता है। 

अगर बिना बलगम और बिना सीटी के सूखी खांसी है तो यह हार्ट का अस्थमा हो सकता है। इसमें फौरन जांच करानी चाहिए। जांच के बाद ही दवाएं दी जा सकती हैं। 

इसके अलावा, साइनस या एसिडिटी से होने वाली खांसी भी होती है। इनमें भी जांच के बाद लक्षणों के अनुसार दवा दी जाती है। 

सिरप या चूसने की गोलियां 

सिरप 
शुगर के मरीज हिमालय ड्रग्स कंपनी का डायकफ सिरप या प्रोस्पैन सिरप ले सकते हैं। ये दोनों शुगर फ्री हैं। आम लोग भी इन्हें ले सकते हैं। 

मुल्तानी फामेर्सी वालों का कूका सिरप, कासामृत सिरप, अमृत रस सिरप, सोममधु सिरप या हिमालय ड्रग्स का सेप्टिलीन सिरप या महर्षि फार्मा का कासनी सिरप लें। इसके अलावा, एलोपैथी में एलेक्स, कफरिल, ब्रोंकोरेक्स व ब्रोंकोडिल सिरप हैं। 

चूसने की गोलियां 
लवंगादि वटी, कासमर्दन वटी, कंठसुधारक वटी, कर्पूरादि वटी या खादिरादि वटी की एक या दो गोली दिन में चार बार चूसें। 

लौंग, मुलहठी, स्वालीन, हॉल्स, विक्स, हनीटस या अदरक कैंडी चूसें। 

होम्योपैथी में सिरप 
रेकवैग का जस्टसिन (Justussine), एसबीएल का स्टोडल (Stodal) और बैक ऐंड कॉल कंपनी का कॉफीज (Cofeez) सीरप। इन्हें शुगर के मरीज भी ले सकते हैं क्योंकि ये मीठे में नहीं बनाये जाते। 

खांसी में परहेज 

ये चीजें न खाएं 
मूंगफली के ऊपर से पानी, चटपटी व खट्टी चीजें, ठंडा पानी, दही, सॉस, सिरका, अचार, अरबी, भिंडी, राजमा, उड़द की दाल, लेसदार चीजें, खट्टे फल, केला, कोल्ड ड्रिंक, इमली, तली-भुनी चीजों को खाने के बाद पानी न पीएं। एकदम गर्म खाकर भी ठंडा पानी न पीएं। फ्रिज में रखी चीजें व चॉकलेट न खाएं। ठंडा दूध न लें। 

इनको आजमाएं 
दूध में सौंठ डालकर पीएं। 
सौंठ डालकर गरम पानी पीएं। 
गुनगुना पानी पीएं। 
मुलहठी चूसें। 
शहद, किशमिश, मुनक्का लें। 
शुगर वाले एक-दो अंजीर पीसकर या रात को भिगो कर लें। 
धुएं व धूल से बचाव रखें। 

होम्योपैथी 

सूखी खांसी : ब्रायोनिया-30 (Bryonia) या स्पॉन्जिया-30 (Spongia) 
बलगमी, घरघराहट वाली खांसी : एन्टिम टार्ट-30 (Antim Tart) या आईपीकॉक-30 (Ipecac) 
जुकाम बुखार के साथ खांसी : बेलाडोना-30 (Belladonna) या एकोनाइट-30 (Aconite) या हेपरसल्फर-30 (Hepar Sulphur) 
काली खांसी : ड्रोसेरा-30 Drosera) या कूप्रम मैट-30 (Cuprum Mat) 

बच्चों की खांसी : सूखी और शुरुआती खांसी है तो बेलाडोना-30 बेलाडोना-30 (Belladonna), बलगमी हो तो सेम्बूकस-30 (Sambucus) या फॉसफोरस-30 (Phosphorus)। चार से छह गोली दिन में तीन बार सात दिन तक दें। 

रात को दिक्कत हो तो : ट्रायो ऑफ कफ मेडिसिन के नाम से तीन दवाएं आती हैं। जिन लोगों को खांसी की दिक्कत अक्सर होती हो, उन्हें इन्हें घर में रखना चाहिए। ये हैं : बेलाडोना-30 (Belladonna) व हेपर सल्फर-30 (Hepar Sulphur) व स्पॉन्जिया-30 (Spongia)। रात को इमरजेंसी में इनमें से किसी एक की चार-छह गोलियां एक-एक घंटे बाद थोडे़ गर्म पानी से ले सकते हैं। स्पॉन्जिया-30 (Spongia) दिल के मरीजों के लिए खांसी की स्पेशल दवा है। 

नोट : ऊपर लिखी सभी दवाएं शुगर, ब्लड प्रेशर और दिल के मरीज भी ले सकते हैं। सभी की डोज एक जैसी होगी। दिन में चार बार पांच-पांच गोलियां लें। 

आयुर्वेद 
आयुर्वेद के अनुसार, जब कफ सूखकर फेफड़ों और श्वसन अंगों पर जम जाता है तो खांसी होती है। इसके लिए नीचे लिखे तरीकों में से कोई एक करें। इन दवाओं और नुस्खों को बीपी या दिल के मरीज भी अपना सकते हैं, पर डायबीटीज के मरीज सितोपलादि चूर्ण और कंठकारी अवलेह न लें क्योंकि उनमें मीठा होता है। 

सूखी खांसी 

हिमालय की सेप्टिलिन एक गोली सुबह-शाम सात दिन तक लें। 
अमृर्ताण्व रस दो गोली सुबह व दो गोली शाम को पानी से लें। 
सितोपलादि चूर्ण शहद में मिलाकर एक चम्मच चाटें। बच्चों को भी दे सकते हैं। 
तालिसादि चूर्ण (करीब आधा चम्मच) पानी से दिन में तीन बार लें। बच्चों को भी दे सकते हैं। 
जे एंड जे डिशेन कंपनी की डेंजाइन या डेस्मा की एक-एक गोली तीन बार पानी से लें या बिना पानी के चूसें। शुगर के मरीज और बच्चे भी ले सकते हैं। 
चंदामृत रस की दो-दो गोली सुबह-शाम पानी से लें। शुगर के मरीज और बच्चे भी ले सकते हैं। 
ज्यादा खांसी हो तो सेंधा नमक की छोटी-सी डली को आग पर रखकर गर्म करें और एक कटोरी पानी में डाल कर बुझा लें। उसी डली को फिर गर्म करें और पानी में डाल लें। ऐसा पांच बार करके यह पानी पिला दें। दिन में दो बार करें। बच्चों के लिए मुफीद है। 
थोड़ी-सी फिटकरी को तवे पर भूनें। आधी मात्रा में अभ्रक भस्म मिलाकर चाटें। 
हींग, त्रिफला, मुलहठी और मिश्री को नीबू के रस में मिलाकर चाटें। 
त्रिफला और शहद बराबर मात्रा में मिलाकर लेने से भी फायदा होता है। 
12 ग्राम हल्दी, 24 ग्राम गुड़ और तीन ग्राम पकाई हुई फिटकरी का चूर्ण मिलाकर गोलियां बना लें और दो-दो गोलियां दिन में दो-तीन बार चूसें। 
तुलसी, काली मिर्च और अदरक की चाय पीएं। 
दिन में दो बार गुनगुने दूध के गरारे करें। 
दिन में दो-तीन बार शहद चाटें। 
रात को गर्म चाय या दूध के साथ आधी चम्मच हल्दी की फंकी लें। 
खराश में कंठकारी अवलेह आधा-आधा चम्मच दो बार पानी से या ऐसे ही लें। 

बलगमी खांसी 
हमदर्द का जोशीना गर्म पानी में डालकर लें। 
महालक्ष्मी विलास रस की एक गोली दो बार पानी से लें। 
कफांतक रस की एक गोली दिन में तीन बार कत्था-चूना लगे हुए पान के साथ लें। 
काली मिर्च के चार दाने घी में भूनकर सुबह-दोपहर और शाम को लें। 
काली मिर्च के चार दाने, एक चम्मच खसखस के दाने और चार दाने लौंग को गुड़ में मिलाकर गर्म करके तीन हिस्से कर लें। दिन में एक-एक कर तीन बार लें। 
पीपली, काली मिर्च, सौंठ और मुलहठी का चूर्ण बनाकर रख लें। चौथाई चम्मच शहद के साथ दिन में दो बार चाट लें। 
चौथाई कटोरी पानी में पान का पत्ता और थोड़ी-सी अजवायन को डालकर उबाल लें। आधा रहने पर पत्ता फेंक दें। पानी में चुटकी भर काला नमक व शहद मिलाकर रख लें। इसी में से दिन में दो-तीन बार पिलाएं। बच्चों के लिए बेहद फायदेमंद है। 
विक्स, नीलगिरी का तेल, यूकेलिप्टस का तेल, मेंथॉल ऑयल में से कोई भी गर्म पानी में डालकर दिन में दो-तीन बार स्टीम लें। सादे गर्म पानी की भाप भी ले सकते हैं। 

जुकाम-बुखार के साथ खांसी 
महालक्ष्मी विलास रस या त्रिभुवन कीर्ति रस की एक-एक गोली दो बार लें। 
संजीवनी वटी एक गोली दिन में दो बार लें। 
नागवल्लभ रस की एक गोली दिन में तीन बार पान के पत्ते में लपेटकर या आधा चम्मच अदरक के रस के साथ लें। 
कफकेतु रस की एक गोली को आधा चम्मच अदरक के रस से दिन में दो बार लें। 
लसूड़े को बीज समेत बिना घी के थोड़ा-सा भूनकर उसमें आधा चम्मच सौंठ, दो लौंग और चौथाई चम्मच दालचीनी मिलाकर पानी में उबालकर चीनी डालकर शर्बत बना लें। इसे दिन में दो-तीन बार लें। 
एक बताशे में एक काली मिर्च डालकर चबा लें। इस तरह दिन में एक बार तीन-चार बताशे खाएं। 

घरघराहट या खड़खड़ वाली खांसी 
इस खांसी में पसलियां चलती हैं, जिससे छाती में से आवाज-सी निकलती है। 
तालिसादि चूर्ण तीन ग्राम पानी से दिन में तीन बार लें। 
वासावलेह आधा चम्मच गर्म पानी से दिन में दो बार लें। 
एक्सपर्ट से पूछकर श्रृंग भस्म और सितोपलादि चूर्ण का मिक्सचर लें। 
लक्ष्मी विलास की एक-एक गोली सुबह-शाम पानी से लें। 
चिरौंजी को पीसकर थोड़े से घी में छौंक लें और दूध मिलाकर उबालें। इसमें थोड़ा इलायची पाउडर और शहद मिलाकर पी लें। शुगर के मरीज बिना शहद के लें। 
रात को सरसों का तेल गर्म करके छाती पर मलने के बाद रुई या गर्म कपड़ा छाती पर बांध दें। 
छाती पर गर्म पानी की बोतल भी रख सकते हैं। 
ऐलोविरा का गूदा निकालकर उसे भूनकर पांच काली मिर्च मिलाकर गोली बना लें। बच्चों को दो-दो गोली सुबह-शाम दूध से दें। रात में इमरजेंसी होने पर भाप लें और जुशांदे को गर्म पानी में उबालकर लें। 

नोट : सभी दवाएं किसी वैद्य की देखरेख में लें। 

चंद सवाल-जवाब 

खांसी व अस्थमा में क्या फर्क है ? 
अस्थमा होने पर छाती से सीटी और शां शां की आवाज आती मालूम पड़ती है और सांस फूल जाता है, जबकि साधारण खांसी गले में खराबी की वजह से भी हो जाती है। 

खांसी न्यूमोनिया से हुई है या वायरल से हुई है, कैसे पहचानें? 
वायरस से होने वाली खांसी आम होती है, पर न्यूमोनिया से होने वाली खांसी में एक्सरे कराने पर न्यूमोनिया का पैच दिखाई देता है। ब्लड टेस्ट कराने पर भी न्यूमोनिया के लक्षण सामने आ जाते हैं। 

पफ व नेबुलाइजर की जरूरत कब पड़ती है? 
अगर सांस लेने पर सीटी की आवाज आए और आप घर पर हों तो नेबुलाइजर की मदद लें। अगर घर से बाहर हों तो जेब में रखने वाला पफ या इनहेलर लें। जरूरत के अनुसार यह दिन में दो बार लिया जा सकता है या डॉक्टर की सलाह के अनुसार इसका यूज करें। 

बलगम में खून आए तो? 
खांसी से खून आए तो घबराना नहीं चाहिए। कई बार जोर से खांसने पर भी खून आ जाता है। खून आने पर देखना चाहिए कि उसका रंग लाल है या काला। ऐसे में खून की जांच और छाती का एक्सरे व सीटी स्कैन करवाना चाहिए। बार-बार खून आए तो टेस्ट जरूर करा लेने चाहिए। टीबी और लंग कैंसर की वजह से भी खून आ सकता है। टीबी की जांच के लिए ईएसआर, बैक्टीरिया के लिए टीएलसी और वायरस के लिए डीएलसी जांच की जाती है। 

डॉक्टर के पास कब जाएं? 
अपने आप डॉक्टर न बनें और न ही घरेलू इलाज के भरोसे रहें। डॉक्टर को दिखाना ही बेहतर है। 

कितने दिनों बाद समझें कि खांसी खतरनाक है? 
खांसी को एक हफ्ते से ज्यादा हो जाए तो ब्लड की जांच कराएं। 

एक्सपर्ट्स पैनल 

डॉ. आर. एन. कालरा, सीनियर फिजीशियन 
डॉ. बीर सिंह, सीनियर फिजीशियन, एम्स 
डॉ. के. के. अग्रवाल, सीनियर फिजीशियन 
आचार्य विक्रमादित्य, आयुर्वेद विशेषज्ञ 
सुरक्षित गोस्वामी, योग गुरु 

Saturday

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र

चौघडियाँ

Monday

DRINK WATER ON EMPTY STOMACH

DRINK WATER ON EMPTY STOMACH
It is popular in Japan today to drink water immediately after waking up every morning.
Furthermore, scientific tests have provena its value.
We publish below a description of use of water for our readers.

For old and serious diseases as well as modern illnesses the water treatment had been found successful by a Japanese medical society as a 100% cure for the following diseases: Headache, body ache, heart system, arthritis, fast heart beat, epilepsy, excess fatness, bronchitis asthma, TB, meningtitis, kidney and urine disea ses, vomiting, gastritis, diarrhoea, piles, diabetes, constipation, all eye diseases, womb, cancer and menstrual disorders, ear nose and throat diseases.

METHOD OF TREATMENT
1. As you wake up in the morning before brushing teeth, drink 4 x 160ml glasses of water

2. Brush and clean the mouth but do not eat or drink anything for 45 minutes

3. After 45 minutes you may eat and drink as normal.

4. After 15 minutes of breakfast, lunch and dinner do not eat or drink anything for 2 hours

5. Those who are old or sick and are unable to drink 4 glasses of water at the beginning may commence bytaking little water and gradually increase it to 4 glasses per day.

6. The above method of treatment will cure diseases of the sick and others can enjoy a healthy life.

The following list gives the number of days oftreatment required to cure main deseases:

1. High Blood Pressure - 30 days
2. Gastric - 10 days
3. Diabetes - 30 days
4. Constipation - 10 days
5. Cancer - 180 days
6. TB - 90 days

Arthritis patients should follow the above treatment for only 3 days.

In the 1st week to be followed by daily treatment.

This treatment method has no side effects, however at the commencement of treatment you may have to urinate a few times.

Mantras of various deities

Mantras of various deities


Now a days there are thousands of mantras available in all kinds of remedial books and magazines. The authenticity and the effectiveness of most of them is quite doubtful. Most of what we are reproducing below are from the book "Meditations from the Tantras" by Paramahamsa Swami Satyananda Saraswati, one of the greatest self realized yogis of our times and an acknowledged master of the tantra.



Gayatri Mantra: According to the Hindu scriptures Devi Gayatri is the Mother of the Vedas. It is said that even Trinities (Brahma, Vishnu and Shiva) worship her as their Mother. The Gayatri Mantra is the prescribed daily mantra for all Hindus and regarded as the remover of all sins and the bestower of all desired things. It is also part of the Sandhya Vandana. The sage Vishwamitra is given the credit for bringing Mother Gayatri to earth.

The following is the most commonly recited Gayatri Mantra.



Om Bhuh Bhuvah Svah Tat Saviturvarenyam Bhargodevasya Dhimahi Dhiyoyonah Prachodayat
The meaning of the Gayatri mantra is as follows:

We contemplate the glory of Light illuminating the three worlds: gross, subtle, and causal. I am that vivifying power, love, radiant illumination, and divine grace of universal intelligence. We pray for the divine light to illumine our minds.Om: The primeval soundBhur: the physical worldBhuvah: the mental worldSuvah: the celestial, spiritual worldTat: That; God; transcendental ParamatmaSavithur: the Sun, Creator, PreserverVarenyam: most adorable, enchantingBhargo: luster, effulgenceDevasya: resplendent, supreme LordDheemahi: we meditate uponDhiyo: the intellect, understandingYo: May this lightNah: ourPrachodayath: enlighten, guide, inspire The other Gayatri Mantra is as follows: Om Bhu, Om Bhuvah, Om Svaa, Om Mahaa, Om Janah, Om Tapah, Om Satyam, Om Tat Savitur Varenyam Bhargo Devasya Dhimahi Dhiyo Yo Nah PrachodayatOm Apo Jyotih Raso-mritam Brahmaa Bhur Bhuvah Swaa Om According to the Hindu belief there are fourteen worlds. Bhu, Bhuvah, Svaa, Mahaa, Janah, Tapah, Satyam are the seven Higher worlds and Atata, Kutala, Vitala, Mahatala, Rasatala, Bhutala and Patala are the seven Lower worlds. The above Gayatri mantra is recited by those seeking the Higher worlds. Maha Mrituyunjaya Mantra: This mantra of lord Shiva is the most effective and the most commonly recited one for curing all types of illnesses and to avoid any misfortunes and untimely death. Om Tryambakam Yajamahe Sugandhim Pushti VardhanamUrvaarukamiva Bhandanath Mrityor Muksheeya MamritatVedic Gayatri Mantras of other Gods :Ganesh: Om Ekadantaya Vidmahe Vakratundaya Dhimahi Tanno Danti PrachodayatVishnu: Om Narayanaya Vidmahe Vasudevaya Dhimahi Tanno Vishnu Prachodayat Narasimha: Om Vajranakhaya Vidmahe Mahadevaya Dhimahi Tanno Narashimha PrachodayatRudra: Om Tat Purushaya Vidmahe Mahadevaya Dhimahi Tanno Rudrah PrachodayatLakshmi: Om Mahadevyai Cha Vidmahe Vishnu-patnyai Cha Dhimahi Tanno Lakshmi PrachodayatKartikeya: Om Tatpurushaya Vidmahe Mahasenanaya Dhimahi Tanno Shanmukha Prachodayat



Other Kartikeya mantra:

Om Saravanabhavaya NamahSasthi and Chaturdasi are the best tithis to worship Krtikeya.Santana Gopala mantra: For those having difficulty in begetting children, reciting the following Santana Gopala mantra and worship of Lord Krishna in an child form is an excellent remedy.Devakisutam Govindam Vasudevam JagatpatimDehime Tanayam Krishna twam-aham Sharanagatah.Siva Mantras:1. Om Namah Sivaya2. Om Haraye Namah3. Om Tryambakam yajamahe sugandhim pushtivardhanamUrvarukamiva bandhanat mirityormurkshiya mamaritat4. Om Namah Nilakanthaya5. Hroum6. Proum Hrim thah7. Ram ksham mam yam oum umVaishnava Mantras:1. Om Narayanaya namah 2. Om Vishnave namah3. Om Vishnave parjyotye namah4. Om Paramatmane namah5. Om Anantaya namah6. Om Achyutaya namah7. Om Govindaya namah8. Om Achyutananta Govindaya namah9. Om Klim Hrishikeshaya namah10.Om Shri Shridharaya namah11.Om Shri Madhusudayanaya namah12.Om Damodaraya namah13.Om Namo Narayanaya namah14.Om Shri Mannarayana-charanou-sharanam prapadyeShri Rama Mantras:1. Om Shri Rama jaya Rama jaya jaya Rama2. Om Shri Ramaya namah3. Om Shri Sitaramachandrabhyam namah4. Ramaya Ramabhadraya Ramachandraya VedhaseRaghunathaya nathaya Sitayah pataye namah5. Om Shri Ramah sharanam mama6. Om Shri Shri Sitaramah sharanam7. Om Ramachandra-charanou-sharanam prapadye8. Ram Ramaya namah9. Ham so Ramaya namah soaham10.Hrim Ramaya namah hrim11. Hroum Ramaya namah hroum12. Aim Ramaya namah13. Klim Ramaya namahKrishna Mantras:1. Om Namo Bhagavate Vasudevaya2. Om Shri Krishnaya Govindaya Gopijana-vallabhaya namah3. Om Shri Krishnaya namah4. Om Shri Krishanh sharanam mama5. Klim6. Krishnah7. Klim Krishnayah8. Klim Krishnayah Govindaya klimShakti Mantras:Kali: 1. Hrim Shrim Krim Parameswarayai svaha2. Hrim Shrim Krim Parameswari Kalike hrim shrim krim svaha3. Om Shri Kalikayai namah4. Om Hrim me svaha )Kali Hridaya)5. Krim Krim Krim Hum Hum Hrim Hrim dakshine Kalike Krim Krim Krim Hum HumHrim Hrim svaha6. Krim Hrim ShrimDurga:1. Om Shri Durgayai namah2. Om Hrim Dum Durgayai namahSaraswati:1. Om Shri Saraswatyai namah2. Om Hrim Aim Hrim Aum Sarasvatyai namahMahalakshmi:1. Hrim Shrim Krim Mahalakshmayai namah2. Om Shrim Hrim Kamale Kamale Kamalalaye prasida prasida Shrim Hrim ShrimMahalakshmyai namah. Radha:1. Om Shri Radhayai Svaha2. Om Hrim Radhikayai namahAnnapurna:Hrim namo bhagavati maheswari Annapurne svahaIndrakshi:Om Shrim Hrim Krim Aim Indrakshyai namahChamunda:Om Aim Hrim Krim Chamundayai VichcheSiddha Mantras of Hanuman for power and siddhis:The Hanuman mantras are very effective for all Saturn related problems, for health, to avoid and overcome troubles caused from enemies and to avoid imprisonment.1. Om Hanumate namah2. Om namo bhagavate anjaneyaya mahabalaya svaha3. Om Hanumate rudratmakaya hum phat4. Om Pavana nandanaya svaha5. Om Namo bhagavate anjaneyaya amukasyashrinkhala trotayatrotaya bandha moksham kuru kuru svaha6. Purvakapimukhaya panchamukha haumate tam tam tam tam tamsakala shatru shanharanaya svaha7. Om pashchimamukhaya garudananaya panchamukha hanumatemam mam mam mam sakala vishahara svaha

Mantras for specific purposes

Mantras for specific purposes


Mantras for wealth:

1. Om Lakshmi Vam shri kamaladhram svaha

2. Jimi sarita sagar mahu jahiJadyapi tahi kamana nahi

3. Bishva bharana poshana kara joiTakar nama Bharat asa hoi

4. Om shrim hrim shrim kamale kamalalaye mahya prasidaprasida prasida svaha

5. Omm shrim hrim shrim mahalakshmyai namah



For Marriage:

1. Taba janaka pai bashishtha ayasu byaha saja savari kaiMandavi shruta kirati Urmila kuwari lai hankari kai

2. Katyayani mahamaye mahayogindadhishvariNandagopasutam devi patim me kurute namah



For having children:

1. Devakisutam Govindam Vasudevam JagatpatimDehimeTanayam Krishna twam-aham Sharanagatah.



To have a son:

1. Sarvabadhabinirmukto dhanadhanyasutanvitahManushyo tatprasaden bhavishyati na samshayah

2. Om hrim lajja jjalyam thah thah lah om hrim svaha



For safety of the child in the womb:

1. Om tham tham thim thim thum them thaim thoum thah thah om



Curing fever:

1. Om namo bhagavate rudraya namah krodhesvaraya namahjyoti patangaya namo namah siddhi rudra ajapayati svaha

2. Om vindhya vanana hum fat svaha

3. Om namo bhagavate chhandi chhandi amukasya jvarasyashara prajjvilita parashupaniye parashaya fat

4. Om namo maha uchchhishta yogini prakirna dranshta khadatitharvati nashyati bhakshyati om thah thah thah thah



Removing any disease:

1. Om Hrim hansah

2. Om shrim hrim klim aim Indrakshyai namah

3. Om sam, sam sim, sum sum sem saim sam saha vam vam vim vim vum vum vemvaim voim voum vam van saha amrita varech svaha.



For sound health:

1. Mam mayat sarvato raksha shriyam vardhaya sarvadaSharirarogyam me dehi deva deva namostute

2. Om aim hrim shrim namah sarvadharaya bhagavate asyamama sarva roga vinashaya jvala jvala enam dirghayusham kuru kuru svaha

3. Achyutam chamritam chaiva japedoushadhakarmani

4. Om namo paramatamne para brahma mama sharire pahi pahi kuru kuru svaha



For curing piles:

1. Om chhai chhui chhalaka chhalai ahumAhum klam klam klim hum



For curing pox:

1. Om shrim shrim shrum shram shroum shrah om kharasthadigambara vikata nayanam toyasthitam bhajami svahaSvangastham prachandarupam namabhyatmabhibutaye



For stimulating digestive fire:

1. Agastyam kumbhakaranam cha shamincha vadavanalamBhojanam pachanarthaya smaredabhyam cha panchakam



For sound sleep:

1. Om agasti shayinah



For long life:

1. Hroum om jom sa om bhurbhuvah svaha omTryambakam yajamahe sugandhim pushtivardhanamUrvarukamiva bandhanata mrityormukshiyamamritat



For children's diseases:

1. Avyadajoangdhri manimanstava janvathoru,yajnoachyutah kati tatam jatharam ka hayasya



For removing obstructions and difficulties:

1. Sakal vighna vyopahin nahin tehinRama sukripan bilokahin jehin

2. Sarva badha prashamanam trailokyasyakhileshvariEvameva tvayakaryamasmad vairi binashanam

3. Om ram ram ram ram ram ro ro ram kashtam svaha

4. Om namah shante prashante gum hrim hrim sarva krodha prashamani svaha



For winning court cases:

1. Pavan tanaya bala pavan samanaBuddhi viveka bigyana nidhana



To Keep safe from snakes:

1. Om Narmadayai vicharana

2. Ananta vasukim shesham padmanabham cha kambalamShankhapalam dhritarashtram takshakam kaliyam tatha munirajam Astikam namah

3. Om plah sarpakulaya svaha ashehakula sarva kulaya svaha



For removing the venom of snakes:

1. Garudadhvajanusmaranat vishaviryam vyapohati

2. Nama prabhau jana Siva nikoKalakuta falu dinha amiko



To keep safe from theft:

1. Om kafall-kafall-kafall

2. Om karalini svaha om kapalini svaha hroum hrim hrim hrim chora bandhaga thah thah



For peace and detachment:

1. Daihika daivika bhoutika tapaRama raja nahin kahu byapa

2. Bharata charita kari mamu tulasije sadar sunahinSiya Rama pada prema avasi hoi bhava rasa birati



For removing doubt:

1. Rama katha sundar karatariSansaya bihaga unavana hari



For purification of thought:

1. Take juga pada kamala manavaunJasu kripa niramala mati pavaun



Reomova of the evil eye:

1. Shyama Gaura sundara dou joriNirakhahin chhabi janani trina tori



For vision of Sitaji:

1. Janakasuta jagajanani janakiAtisaya priya karunanidhana ki



To please Hanuman:

1. Sumiri pavan suta pavana namuApane basa kari rakhe Ramu



For devotion to God:

1. Bhagata kalpataru pranatahita kripasindhu sukaddhamaSoi nija bhagati mohi prabhu dehu kaya dari Rama



For acquiring knowledge:

1. Chhiti jala pavaka gagana samiraPancha rachita yaha adhama shariraFor God's forgiveness:1. Anuchita bahuta kaheun agyataKshamahun kshama mandira dou bharata

Hope you all enjoy this truth . God bless you all.

These Statements are mentioned in Hindu purans about Jineshwar /Tirthankars / Jina / Arhan / Arihant--- terms used for Jain 24 gods ,

Hope you all enjoy this truth . God bless you all.

"I am not Rama. I have no desire for material things. Like Jina I want to establish peace within myself."
- Yoga Vasishta, Chapter 15, Sloka 8 the saying of Rama

"O Arhan! You are equipped with the arrow of Vastuswarpa, the law of teaching, and the ornaments of the four infinite qualities. O Arhan! You have attained omniscient knowledge in which the universe is reflected. O Arhan! You are the protector of all the Souls (Jivas) in the world. O Arhan! The destroyer of kama (lust)! There is no strong person equal to you."
- Yajur Veda, Chapter 19, Mantra 14

Full details of first jain god Rishabh dev and Bharat chakravarti after whom india got its name bharat are available in Adipuran and Mahapuran of Jinsenacharya and Shrimad-Bhagavat.
Till date brahmins bless by name of Aristanemi means neminathji 22nd jain tirthankar.
Biography of Neminathji is available in Harivanshpuran.

Jainism is eyes of world wide scholars by Acharya Shri Vijayabhuvanbhanu – soorishwarji

"We learn from scriptures (Sashtras) and commentaries that Jainism is existing from beginning less time.This fact is indisputable and free from difference of opinion.There is much historical evidence on this point.Meat-eating and wine-drinking in Brahminism were discarded on account of the influence of Jainism.”
- Bala Gangadhar Tilak Lokamanya

"I adore so greatly the principles of the Jain religion, that I would like to be reborn in a Jain community."
- George Bernard Shaw

"There is nothing wonderful in my saying that Jainism was in existence long before the Vedas were composed. Vardhaman Tirthankar made the traditions of the F'rinciples and ideologies that had been expounded by the 23 earlier sages or Tirthankars go forward. We have a lot of evidence to establish the view that there were countless devotees and followers of Rishabhdev even before the commencement of the modern era. The Tirthankars are given prominence and honour even in the Yajurveda. The Jain Dharma has been in existence from times immemorial"
- Dr. S. Radhakrishnan, Vice President, india

"Jainism has contributed to the world the sublime doctrine of Ahimsa. No other religion has emphasized the importance of Ahimsa and carried its practice to the extent that Jainism has done.Jainism deserves to become the universal religion because of its Ahimsa doctrine The modern research in history has proved that the Jain Dharma existed even before Brahminism or the Hindu Dharma."
- Justice Ranglekar, Bombay High Court

"Lofty ideas and high ascetic practices are found in Jainism.It is impossible to know the beginning of Jainism."
- Major General Forlong

"I say with conviction that the doctrine for which the name of Lord Mahaveer is glorified nowadays is the doctrine of Ahimsa. If anyone has practiced to the fullest extent and has propagated most the doctrine of Ahimsa, it was Lord Mahaveer."
- Mahatma Gandhi


"What would be the condition of the Indian Sanskrit literature if the contribution of the Jains were removed?The more I study Jain literature the more happy and wonder struck I am.""The Jains have written great masterpieces only for the benefit of the world."
- Dr. Hertel, Germany

"Jainism is of a very high order.Its important teachings are based upon science.The more the scientific knowledge advances the more that Jain teachings will be proven."
- L. P. Tessetori, Italy




THE OPINIONS OF WESTERN SCHOLARS ABOUT
THE JAIN DHARMA
"I tell my countrymen that the principles of the Jain
Dharma and the Jain Acharyas are sublime; and that the ideas
the Jain dharma are lofty. The Jain literature is superior to the Buddhistic literature. As I continue to study the Jain Dharma and its literature, my fascination for them keeps increasing".
Dr. Johannes Hurtell (Germany)

The Jain Dharma is an entirely independent religion in all
respects. It has not borrowed ideas from other religions; nor is it an imitation of other religions.
Dr. Herman Jacobi

The history of the Jain Dharma and its teachings are greatly
beneficial to human beings in their endeavour to attain spiritual development and progress. This Dharma is true, independent, simple, straightforward, very valuable and entirelydifferent from Brahminism or the Vedic religion. It is not an atheistic religion like Buddhism.
Dr. A. Girnot (Paris)

The Jain Dharma is absolutely different and independent from the Hindu Dharma.
Max Mueller

It is probably impossible to find out when the Jain Dharma arose and when it was established; and since when it has been in existence. It is the most ancient of the religions of Hindustan.
G. J. R. Furlough

In the ancient history of India, the name of the Jain Dharma is evergreen and immortal.
Col. Toad

Undoubtedly, the Jain Dharma has reached the highest point of perfection in respect of its religious philosophy.
Dr. Purdolt

The Jain Dharma belongs to the highest rank of religions. The main principles of the Jain Dharma are based on scientific thinking. As science keeps progressing it keeps proving the soundness of the Jain philosophical principles.
Dr. L. P. Tessifori (Italy)

Jainism is unique in preaching kindness to all animals; and in preaching the need to give protection to all animals. I have not come across such a principle of benevolence in any other religion.
Ordi Corjeri (An American Scholar)

Compared to Buddhism, the Jain Dharma is more ancient. Twenty three Tirthankars~ existed before the emergence of Buddhism.

The Imperial Gazette of India.

Adinath had two daughters- Bramhi and Sundari and sons – Bharat and Bahubali. He founded the system of education to society for the first time. He imparted education to his daughter before he did to his sons, because he said that a mother was the first teacher of her children and needed education first. This shows that education of women is more important than education of men. Adinath used to teach the two daughters seating them in his lap, Bramhi in the right and Sundari in the left lap. He taught language and script to Bramhi and arithmetic to Sundari. The script taught to Brahmi later on came to be known as Brahmi Script ( Tamil language evolved from brahmi script). Brahmi wrote from left to right and this became the style of Bramhi Script. Sundari wrote numbers seating in the left lap and hence numbers had descending value from right to left. It we write 123, 1 is in hundred place, 2 in ten and 3 in unit place. It has been said,that the progress of number is from right to left.Adinath invented grammar for the language he taught.

Bharat , the eldest son of Rishaba ( first tirthankar ) , was a sovereign ruler after whom the land around & eastwards of the river Indus came to be known as Bharat varsha / Bharat.
The constitution of India refers to India that is Bharat ; perhaps it would be more accurate to refer to our country as Bharat that is India.

Lord parshwanathji 23RD JINESHWAR was born in kashi ( varanasi ) in 19th century BC. His parents were King Aswasena , the ruler of kashi & Vamdevi mataji.

Lord Mahavir was the senior contemporary of Gautama Buddha, the founder of Buddhism. In Buddhist books Lord Mahavir is always described as nigantha Nataputta (Nirgrantha Jnatrputra), i.e., the naked ascetic of the Jnätr clan. Further, in the Buddhist literature Jainism is referred to as an ancient religion. There are ample references in Buddhist books to the Jain naked ascetics, to the worship of Arhats in Jain chaityas or temples and to the chaturyäma‑dharma (i.e. fourfold religion) of 23rd Tirthankar Parsvanath.

Moreover, the Buddhist literature refers to the Jain tradition of Tirthankars and specifically mentions the names of Jain Tirthankars like Rishabhdev, Padmaprabh, Chandraprabh, Puspdant, Vimalnath, Dharmanath and Neminath. The Buddhist book Manorathapurani, mentions the names of many lay men and women as followers of the Parsvanath (23rd jain tirthankar )tradition and among them is the name of Vappa, the uncle of Gautama Buddha. In fact it is mentioned in the Buddhist literature that Gautama Buddha himself practiced penance according to the Jain way before he propounded his new religion.

Shramans and shraman culture preceded Vedic religion and culture in India ,term shraman culture constitues 24 jain tirthankars / gods/ jinas/ arhats whereby shraman culuture was started by first tirthankar Rishabhdevji/ Adinathji.

Aryans were too influenced by 23rd tirthankar parswanathji . Lord Mahavir & Lord Gautam Buddha were both heirs to lord parshwanathjis legacy. During The time of Lord Mahavira & Lord Buddha , there were many shraman monks who belonged an order, samgha, founded by Lord parshwanathji . They eventually joined Lord Mahavirs order or Lord Buddhas order.

Jainism & Buddhism both belong to shramana tradition . Unlike Buddhism , which traces its origin to lord Buddha , The jain shramana tradition is represented in its legendary glory by 24 jinas / tirthankars , the first of whom was Lord Rishabha/ adinathji & last 24th lord Mahavira. Hence shraman culture today constitutes to Jainism & Buddhism.

THE OPINIONS OF THE INDIAN SCHOLARS ABOUT
THE JAIN DHARMA
Meat-eating and wine-drinking in Brahminism were discarded on account of the influence of Jainism.
Lokmanya Tilak

Jainism and Buddhism are absolutely Indian but they are not offshoots of Hinduism.
Pandit Jawaharlal Nehru

If those who are hostile to Jainism make a careful and incisive study of the Jain literature and assimilate it. their hostility will surely cease.
Dr. Ganganath Jha

The true and sublime message of Mahavir inspires in us the lofty emotion of universal amity as if through the cry of a 'conch shell.'
Sir Akbar Hydari

Shri Rishabhdev first disseminated the Jain Dharma.
Shri Varadikant M. A.

The Syadvad is an impregnable fort of the Jain Dharma. The bullets of the arguments and the counter-arguments of the controversialists cannot penetrate this fort.
Pandit Ram Misra Acharya

"Though the Jain Dharma had to face hateful opposition and countless impediments it has always and at all places! been victorious. Arhan is none other than Lord Parameshwar". A description of Lord Arhan is discernible even in the Vedas.
Swami Virupaksha Professor,
Sanskrit College, Indore

The Jain Dharma is so ancient that its origin and early history cannot be easily discovered.
Kannulal Jodhpuri

"I once saw two books in the hands of a Jain disciple. When I read them I found that they were true and impartial; and that I had entered ~ new realm of thought. I found that what I had studied from my boyhood and the Vedic flag which I kept flaunting were unreal and untrue. If there is a religion which is ancient, true and supremel?J sound, it is the Jain Dharma.
Yori Jivanand Paramhamsa

Only the Tirthankars, the founders and promoters of the Jain Dharma have conferred upon us the extraordinary gift of absolute non-violence.
Dr. Radhavinod Pal

The modern research in history has proved that the Jain Dharma existed even before Brahminism or the Hindu Dharma.
Justice Rangnekar

The fact that the Jain Dharma is an ancient religion has been proved by countless rock-edicts, caves, fossils and the excavations at Mohenjodaro. The Jain Dharma has been in vogue from the time of creation. It is more ancient than the Vedanta Dharma.
Swami Misra Jhah `

"The Syadvad provides us with a point of view of compre- hensive and unified visualization. It is not related to the fundamental secret of an object. According to it, we cannot attain a complete knowledge of an object unless we view it from various points of view. The syadvad is not a conjectural approach to reality. It teaches us how we should look at the universe.
Prof. Anandshankar Dhruva

The Jain Literature is greatly useful to the world in the sphere of historical research and studies. It provides abundant material to historian~, arche.ologists and scholars to carry out their research. The Jain Sadhus have set a magnificent example to the world of self-discipline by disciplining their senses absolutely and by observing vows and principles with the greatest degree of austerity. Even the life of a householder who has dedicated himself to the Principles of Jainism is so faultless and perfect that it should be honoured througho ut India.
Dr. Satish Chandra Vidya Bhushan (Calcutta)

Lord Mahavir communicated the message that Dharma is the only truth, with his voice that resounded like the sounds of a kettledrum. It is really significant that this message has captivated the whole country.
Dr. Rabindranath Tagore

We can attain absolute serenity by following the path shown by Mahavir. In no other religion do you find the philosophy of .non-violence developed to such an extent. On account of its philosophy of non-violence, the Jain Dharma is worthy of becoming the religion of the world.
Dr. Rajendra Prasad

The Jain Dharma was in vogue even before the emergence of the Vedant darshan. The Jain Dharma has been in practice even from the beginning of creation.
Dr. Satishchandra

Vardhaman Tirthankar made the traditions of the F'rinciples and ideologies that had been expounded by the 23 earlier sages or Tirthankars go forward. We have a lot of evidence to establish the view that there were countless devotees and followers of Rishabhdev even before the commencement of the modern era. The Tirthankars are given prominence and honour even in the Yajurveda. The Jain Dharma has been in existence from times immemorial.
Dr. Radhakrishnan

The Jain literature is more ancient than the others and it is useful for the daily spiritual austerities and practices. So, I heartily desire to acquire a know1edge of Jain Dharma. It had an independent existence even before the emergence of Hinduism. Its impact was experienced by the greatest men of the past.
Ravbahadur Poornendra Narayana Sinha

It has been clearly established that Jainism is not a branch of Buddhism. In the Jain philosophy, there is a detailed discussion of the principle of life or existence. No other darshan has so many philosophical works.
Abjaksha Sarkar, M.A.,LLB.

The greatest principle of Jainism is its principle of non- violence. The greatness of this religion is that it permits even women to become initiated into Charitradh arma and to lead a life of service and dedication. The Buddhists do not fear com-mitting violence so much as Jains.
I very much like the subtler aspects of the Jain philosophical doctrine
Mohammad Hafiz Sayad, B.A.,LL.B.

I am greatly interested in the Jain doctrines because they contain a subtle and profound discussion of the Karma Philosophy.
M. D. Pande

Bhaktamar Stotra by Acharya Manatunga

bhaktamara-pranata-maulimani-prabhana -
mudyotakam dalita-papa-tamovitanam |
samyak pranamya jina padayugam yugada-
valambanam bhavajale patatam jananam || 1||

yah sanstutah sakala-vangaya- tatva-bodha-
d -ud bhuta- buddhipatubhih suralokanathaih|
stotrairjagattritaya chitta-harairudaraih
stoshye kilahamapi tam prathamam jinendram || 2||

buddhya vinaapi vibudharchita padapitha
stotum samudyata matirvigatatrapoaham |
balam vihaya jalasansthitamindu bimba -
manyah ka ichchhati janah sahasa grahitum || 3 ||

vaktum gunan gunasamudra shashankkantan
kaste kshamah suragurupratimoapi buddhya |
kalpanta - kal - pavanoddhata - nakrachakram
ko va taritumalamambunidhim bhujabhyam || 4 ||


I bow to Thee, O Lord Adinath
Teacher Supreme Guide of the Path
of Dharma Eternal Source Divine
The Purusha first Saviour Benign
Crowns place celestials on Thy feet
Delusions they remove, see vision sweet
Worshipping Thy feet ends transmigration
With body, mind, speech concentration.

With words select and expressions deep
I give Thine supreme attributes a peep
Just as Shruti others sang Thy praise
It was Indra and other celestials craze.

My desire to praise Thee is insolence
Using various expressions sheer ignorance
No wise man would catch the reflection
Of moon in water, a childish action.

Ocean limitless of passionless attributes
Even Brahaspati is unable to pay tributes
Which creature can swim the ocean
Disturbed by Dooms day violent motion.

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soaham tathapi tava bhakti vashanmunisha
kartum stavam vigatashaktirapi pravrittah |
prityaaatmaviryamavicharya mrigo mrigendram
nabhyeti kim nijashishoh paripalanartham || 5 ||

alpashrutam shrutavatam parihasadham
tvad bhaktireva mukharikurute balanmam |
yatkokilah kila madhau madhuram virauti
tachcharuchuta - kalikanikaraikahetu || 6||

tvatsanstavena bhavasantati - sannibaddham
papam kshanat kshayamupaiti sharira bhajam |
akranta - lokamalinilamasheshamashu
suryanshubhinnamiva sharvaramandhakaram || 7||

matveti nath! tav sanstavanam mayeda -
marabhyate tanudhiyapi tava prabhavat |
cheto harishyati satam nalinidaleshu
muktaphala - dyutimupaiti nanudabinduh || 8 ||


Incapable still I pray with devotion
Moved by urge without hesitation
Faces lion, a mother deer
To rescue her little one without fear.

The cuckoo sings sweet notes in the spring
Buds of mango tree provide the urge
Though idiotic like a laughing stock I sing
Thy praise, devotion imparts the surge.

Accumulated sins of births disappear
The prayer removes their traces
No traces of any darkness appear
When sun's rays the night faces.

With Thy grace, prayer I offer
Pleasant soothing to people's mind
When water drops on lotus flower
Shine, it imparts of pearls kind.

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astam tava stavanamastasamasta - dosham
tvatsankathaapi jagatam duritani hanti |
dure sahastrakiranah kurute prabhaiva
padmakareshu jalajani vikashabhanji || 9||

natyad -bhutam bhuvana-bhushana bhutanatha
bhutaira gunair -bhuvi bhavantamabhishtuvantah
tulya bhavanti bhavato nanu tena kim va
bhutyashritam ya iha natmasamam karoti || 10 ||

drishtava bhavantamanimesha-vilokaniyam
nanyatra toshamupayati janasya chakshuh |
pitva payah shashikaradyuti dugdha sindhoh
ksharam jalam jalanidherasitum ka ichchhet || 11 ||

yaih shantaragaruchibhih paramanubhistavam
nirmapitastribhuvanaika lalama-bhuta|
tavanta eva khalu teapyanavah prithivyam
yatte samanamaparam na hi rupamasti || 12 ||


What to say of Thy attributes glorious
Mere mention destroys sins notorious
Just as lotus flowers bloom with delight
When falls on them remote sun's light.

No wonder they attain Thy position
Who recite Thy attributes with devotion
Such masters hardly get commendation
Who raise not their servants to their elevation.

On Thee a person focuses attention
Excludes everything else to mention
After taste of nectar from milky ocean
Who will have saline water notion.

Lord of the universe its decoration and grandeur
There is none else here to match your splendour
Because ingredients of your attributes of non attachment
Were the only ones in the world without replacement.

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vaktram kva te suranaroraganetrahari
nihshesha - nirjita-jagat tritayopamanam |
bimbam kalanka-malinam kva nishakarasya
yad vasare bhavati pandupalashakalpam || 13 ||

sampurnamannala - shashankakalakalap
shubhra gunastribhuvanam tava langhayanti |
ye sanshritas -trijagadishvara nathamekam
kastan -nivarayati sancharato yatheshtam || 14 ||

chitram kimatra yadi te tridashanganabhir -
nitam managapi mano na vikara - margam |
kalpantakalamaruta chalitachalena
kim mandaradrishikhiram chalitam kadachit || 15 ||

nirdhumavartipavarjita - tailapurah
kritsnam jagattrayamidam prakati-karoshi |
gamyo na jatu marutam chalitachalanam
dipoaparastvamasi nath jagatprakashah || 16 ||


Serenity of Thine face is matchless
Is feast for mortals celestial sight
Moon trying to vie with it, is helpless
Spot it has and obscurity in day light.

Thine attributes all three worlds transcend
Like full moon rays filling earth's atmosphere
Because for their source on Thee depend
Lord of Lords of all the worlds sphere.

Failed to seduce Thee with her charm
Celestial beauty could do no harm
Mountain Meru is too steadfast
Dooms day winds other mountains blast.

O Lord, Thy light three worlds illumines
A lamp without wick oil smoke Thou shines
O wonderful lamp, brightening the whole universe
Too strong for the mount quaking windy curse

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nastam kadachidupayasi na rahugamyah
spashtikaroshi sahasa yugapajjaganti |
nambhodharodara - niruddhamahaprabhavah
suryatishayimahimasi munindra! loke || 17 ||

nityodayam dalitamohamahandhakaram
gamyam na rahuvadanasya na varidanam |
vibhrajate tava mukhabjamanalpa kanti
vidyotayajjagadapurva - shashankabimbam || 18 ||

kim sharvarishu shashinaahni vivasvata va
yushmanmukhendu - daliteshu tamassu natha
nishmanna shalivanashalini jiva loke
karyam kiyajjaladharair - jalabhara namraih || 19 ||

gyanam yatha tvayi vibhati kritavakasham
naivam tatha hariharadishu nayakeshu
tejah sphuranmanishu yati yatha mahatvam
naivam tu kacha - shakale kiranakuleapi || 20 ||


Sun suffers eclipse, clouds obscure its light
It sets, disappears leaving darkness in the night
Thou art not such a sun, Thy infallible light
Illumines the universe and for obstacles, too bright.

The beauty of Thy face, O Lord, transcends that of moon
Which sets, suffers, eclipse, disappears in the clouds soon
Thou dispels delusion moon the darkness of night
Thou illumines universe moon makes a planet bright.

O Lord, Thy halo dispels the darkness perpetual
Of what use is then sun of usual and moonlight
Of what use are the clouds full of rains
When all the fields flow with ripe grains.

Deities other envy Thy Omniscience
Just as glass glaze diamond's brilliance
In them there is no such glorification
It is matching the glass to diamond's position

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manye varam hari-haradaya eva drishta
drishteshu yeshu hridayam tvayi toshameti |
kim vikshitena bhavata bhuvi yena nanyah
kashchinmano harati natha! bhavantareapi || 21 ||

strinam shatani shatasho janayanti putran
nanya sutam tvadupamam janani prasuta|
sarva disho dadhati bhani sahastrarashmim
prachyeva dig janayati sphuradanshujalam || 22 ||

tvamamananti munayah paramam pumansa-
madityavarnamamalam tamasah parastat |
tvameva samyagupalabhya jayanti mrityum
nanyah shivah shivapadasya munindra! panthah || 23 ||

tvamavyayam vibhumachintyamasankhyamadyam
brahmanamishvaramanantamanangaketum
yogishvaram viditayogamanekamekam
gyanasvarupamamalam pravadanti santah || 24 ||


Other deities may be said good in a way
As soul searches Thee under their sway
To seek contentment and solace eternal
Thou imparts unlike others ephemeral.

Innumerable stars in all directions appear
It is only the East from which the sun does rise
Numberless sons other mothers bear
A son like Thee is Thy mother's prize.

Resplendent like sun spotless, the Being Supreme
Unaffected by delusion saints hold you in high esteem
They conquer death on Thy realization
Being the only sure way of securing salvation.

Virtuous hail Thee indestructible and all composite
With form beyond conception and virtues infinite
They call Thee ADI being the first of Tirthankars
They call Thee Brahma having shed all karmas
They call Thee Ishwar having achieved all achievable
They call Thee Ananta as Thy form is ever durable.
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buddhastvameva vibudharchita buddhi bodhat ,
tvam shankaroasi bhuvanatraya shankaratvat |
dhataasi dhira ! shivamarga-vidhervidhanat ,
vyaktam tvameva bhagavan ! purushottamoasi || 25 ||

tubhyam namastribhuvanartiharaya natha |
tubhyam namah kshititalamalabhushanaya |
tubhyam namastrijagatah parameshvaraya,
tubhyam namo jina ! bhavodadhi shoshanaya || 26 ||

ko vismayoatra yadi nama gunairasheshais -
tvam sanshrito niravakashataya munisha!
doshairupatta vividhashraya jatagarvaih,
svapnantareapi na kadachidapikshitoasi || 27 ||

uchchairashoka-tarusanshritamunmayukha-
mabhati rupamamalam bhavato nitantam |
spashtollasatkiranamasta-tamovitanam
bimbam raveriva payodhara parshvavarti || 28 ||


As Anangketu having destroyed the sex instinct
As Yogishwar being head of saints distinct
As Vidityoga, having attained yogee perfection
As many since each soul has distinction
They call Thee one being Thyself a class
As knowledge incarnate, spotless without karmas
They hail Thee Buddha, being venerated by learned many
Shankar as bestower of peace in the worlds den,
As Narayan being the ideal soul there.

My obeisance to Thee O Lord,
Thou are the remover of world's misery and pain
My respects to Thee O Lord,
Thou driest up the ocean of wandering mundane
My veneration to Thee O Lord,
Thou art the world's beauty and decoration
I bow to Thee O Lord
Thou are the Lord of the world's population.

No wonder the virtues not finding a place anywhere
Found in Thee a fit receptacle and reposed there
The sins and defects full of pride without care
Could not dream of Thee, being accepted every where.

Surrounded by spotless halo below the Ashoka tree
Thy light focuses upward from Thy resplendent body free
The scene is fascinating like might sun's reflection
Seen through dark clouds with rays in all direction.

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simhasane manimayukhashikhavichitre,
vibhrajate tava vapuh kanakavadatam |
bimbam viyadvilasadanshulata - vitanam,
tungodayadri - shirasiva sahastrarashmeh || 29 ||

kundavadata - chalachamara - charushobham,
vibhrajate tava vapuh kaladhautakantam |
udyachchhashanka - shuchinirjhara - varidhara-,
muchchaistatam sura gireriva shatakaumbham || 30 ||

chhatratrayam tava vibhati shashankakanta-
muchchaih sthitam sthagita bhanukara - pratapam |
muktaphala - prakarajala - vivriddhashobham,
prakhyapayattrijagatah parameshvaratvam || 31 ||

gambhirataravapurita - digvibhagas -
trailokyaloka - shubhasangama bhutidakshah |
saddharmarajajayaghoshana - ghoshakah san ,
khe dundubhirdhvanati te yashasah pravadi || 32 ||


. Seated on the multicoloured throne
Scintillating with the most costly stone
Thy speckless golden person
Emanates halo in each direction
Fascinates like rising sun's disc
On mount top shooting rays brisk.

Celestials serve Thee with chanwar white,
Thy person golden then assumes a sight
Most charming like froth and foam
From the spring dancing on Meru's golden dome.

Over Thy head are three canopies
Bedecked with jewels and fine rubies
Thou art world's Lord they clear
And absorb the Sun's heat severe.

The Dundubhi, sounds directions pierce
Proclaiming Thy victory over bigotries fierce
Trumpeting the true religion's eternal efficacy
In bestowing on universe highest ecstasy.
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mandara - sundaranameru - suparijata
santanakadikusumotkara-vrishtiruddha |
gandhodabindu - shubhamanda - marutprapata,
divya divah patati te vachasam tatirva || 33 ||

shumbhatprabhavalaya - bhurivibha vibhoste,
lokatraye dyutimatam dyutimakshipanti |
prodyad -divakara - nirantara bhurisankhya
diptya jayatyapi nishamapi soma-saumyam || 34 ||

svargapavargagamamarga - vimarganeshtah,
saddharmatatvakathanaika - patustrilokyah |
divyadhvanirbhavati te vishadarthasatva
bhashasvabhava - parinamagunaih prayojyah || 35 ||

unnidrahema - navapankaja - punjakanti,
paryullasannakhamayukha-shikhabhiramau |
padau padani tava yatra jinendra ! dhattah
padmani tatra vibudhah parikalpayanti || 36 ||


Celestial Beings on Thy person shower
From Kalpa tree bunches of flower
Sprinkled with drops of water fragrant
Touched by breeze with odour incessant.

The brilliance of Thy Bhamandal bright
Surpasses the most resplendent of light
Eclipses numberless suns without their heat
Is cool and soothing like moon lit sweet.

Thy letterless speech, the authority and exposition
Clear to the Seekers of Dharma and liberation
Exponent of the ingredients of true religion
Understood by all in their own expression.

O Lord Jinendra whenever Thine holy feet
Fascinating like new golden lotus sweet
Attractive with shining finger nails go
The celestials create beautiful lotus below.

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ittham yatha tava vibhutirabhujjinendra,
dharmopadeshanavidhau na tatha parasya |
yadrik prabha dinakritah prahatandhakara,
tadrik -kuto grahaganasya vikashinoapi | 37 ||

shchyotanmadavilavilola-kapolamula
mattabhramad -bhramaranada - vivriddhakopam |
airavatabhamibhamuddhatamapatantan
drisht va bhayam bhavati no bhavadashritanam || 38 ||

bhinnebha - kumbha - galadujjavala - shonitakta,
muktaphala prakara - bhushita bhumibhagah |
baddhakramah kramagatam harinadhipoapi,
nakramati kramayugachalasanshritam te || 39 ||

kalpantakala - pavanoddhata - vahnikalpam,
davanalam jvalitamujjavalamutsphulingam |
vishvam jighatsumiva sammukhamapatantam,
tvannamakirtanajalam shamayatyashesham || 40 ||


Lord Jinendra the above glory Thou attained
In preaching true religion none also gained
No surprise no other planet is so bright
As to emulate sun's darkness dispelling light.

An elephant mad with rage excited
With cheeks by humming bees blighted
Looking like Indra's Arawat elephant
Cannot hold Thy devotee in fear's element.

A lion who has torn asunder
Elephants head with blood flowing under
Scattering blood stained pearls on the ground
Ready to pounce with growling sound
If Thy devotee falls in his clutches
Firm in faith him no scratch touches.

Fierce fire fanned by ferocious gust
Of wind violent as Dooms day motion lust
Emitting white flames threatening to devour
Whole of the universe in less than an hour
Extinguishes and there appears a pool with lotus flowers
The recitation of Thy name acts as pouring shower.

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raktekshanam samadakokila - kanthanilam,
krodhoddhatam phaninamutphanamapatantam |
akramati kramayugena nirastashankas -
tvannama nagadamani hridi yasya punsah || 41 ||

valgatturanga gajagarjita - bhimanada-
majau balam balavatamapi bhupatinam !
udyaddivakara mayukha - shikhapaviddham,
tvat -kirtanat tama ivashu bhidamupaiti || 42 ||

kuntagrabhinnagaja - shonitavarivaha
vegavatara - taranaturayodha - bhime |
yuddhe jayam vijitadurjayajeyapakshas -
tvatpada pankajavanashrayino labhante || 43 ||

ambhaunidhau kshubhitabhishananakrachakra-
pathina pithabhayadolbanavadavagnau
rangattaranga - shikharasthita - yanapatras -
trasam vihaya bhavatahsmaranad vrajanti || 44 ||


A cobra black as cuckoo under the neck
Fangs raised, eyes red with rage, without check
Faces a person who enshrines Thee in heart pure
Harms not though trampled, he has infallible cure.

Opposed in battle field by mighty forces
Consisting of yelling elephants and neighing horses
Of powerful kings, when Thy devotee offers prayers
Enemy disappears as if sun's rays darkness tear.

Where rivers of blood flow from elephants head
Thrust through pierced with spears all red
A person with faith firm in Thy lotus feet
Conquers the most turbulent foe and their armies fleet.

Through sea where hordes of crocodiles abound
And dreadful fire creates terror abound
Thy devotee's vessel tossed by turbulent waves
Completes the voyage when indulgence Thy craves.

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ud bhutabhishanajalodara - bharabhugnah
shochyam dashamupagatashchyutajivitashah |
tvatpadapankaja-rajoamritadigdhadeha,
martya bhavanti makaradhvajatulyarupah || 45 ||

apada - kanthamurushrrinkhala - veshtitanga,
gadham brihannigadakotinighrishtajanghah |
tvannamamantramanisham manujah smarantah,
sadyah svayam vigata-bandhabhaya bhavanti || 46 ||

mattadvipendra - mrigaraja - davanalahi
sangrama - varidhi - mahodara-bandhanottham |
tasyashu nashamupayati bhayam bhiyeva,
yastavakam stavamimam matimanadhite || 47 ||

stotrastrajam tava jinendra ! gunairnibaddham,
bhaktya maya vividhavarnavichitrapushpam |
dhatte jano ya iha kanthagatamajasram,
tam manatungamavasha samupaiti lakshmih || 48 ||


Afflicted by dropsy and maladies incurable
A person laid prostrate feels miserable
Smears his body with the dust off Thy feet
It's nectar, recovers, assumes form like cupid sweet.

Handcuffed and manacled by heavy chains
With thighs torn suffering untold pains
A person who remembers Thee, O Lord!
Is set free, chains break of their own accord.

A person who reads this poem with devotion
Never has of afflictions any fear or notion
Malady serious, elephant in rage, python angry lion,
furious fire, horrible sea
Turbulent war devastating imprisonment rigorous.

This charming composition like rosary beautiful
Containing expressions picked like flowers suitable
Borne in one's heart like garland round the neck
Secures heavens and Moksha at Thy devotees back
Like Mantunga the author of the composition
This contains Lord Jinendra's attributes exposition.

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